तालिबान पर चुप्पी का कारण भय या भ्रम
भारत का यह भी इतिहास रहा है कि जहां भी मानवता पीड़ित होती है, देश ने उसके खिलाफ आवाज उठाई है और यथासंभव मदद भी पहुंचाई है- बड़े देशों से डरे बगैर। सार्क देशों का वह सिरमौर है और उससे यह सहज अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे संगठनों एवं उनकी ऐसी हरकतों का विरोध करे। ऐसे में सवाल यह है कि सरकार की चुप्पी क्या किसी भय के कारण है अथवा किसी भ्रम के चलते? अथवा दोनों ही इसके मूल में हैं? वजह जो भी हो, है दुर्भाग्यपूर्ण!
● पलाश सुरजन
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान संकट को लगभग हफ़्ता भर होने आ गया है, लेकिन अब तक भारत का ऐसा कोई अधिकारिक बयान नहीं आया है जिससे पता चले कि आख़िर इस मुद्दे पर देश का रुख़ क्या है। 15 अगस्त को जब हम गणतंत्र को प्रशस्त करने वाला अपना स्वतंत्रता दिवस मना रहे थे, हमारे पड़ोसी मुल्क में लोकतंत्र को दफ़्न कर आतंकी गुट तालिबान ने जनतांत्रिक रूप से बनी अशरफ गनी सरकार को बेदखल कर सत्ता पर कब्जा कर लिया था।
इसके बाद करीब पूरे सप्ताह भर से पूरी दुनिया वहां मानवाधिकार हनन के तमाम ख़तरों को जानते हुए भी मौन है। इन चुप रहने वालों की कतार में भारत भी शामिल है जो कि दुखद है। सवाल यह है कि सरकार की चुप्पी क्या किसी भय के कारण है अथवा किसी भ्रम के चलते? अथवा दोनों ही इसके मूल में हैं? वजह जो भी हो, है दुर्भाग्यपूर्ण!
अनेक ऐसे कारण हैं जिनके चलते भारत को इस संबंध में स्पष्ट बयान देना चाहिये था। पहला तो यह है कि अफ़ग़ानिस्तान हमारा न सिर्फ पड़ोसी मुल्क है बल्कि उसके साथ हमारे सदियों के सांस्कृतिक संबंध हैं। वहां इस्लाम धर्म आने और छा जाने के पूर्व तक बौद्ध धर्म का आधिपत्य था जो दोनों देशों को बांधकर रखता है। बाद में वहां प्रमुख धर्म में बदलाव आया हो परन्तु नागरिकों के संबंध अनेक स्तरों पर बने रहे, खासकर व्यावसायिक रिश्ते तो रहे ही; पर केवल ये ही वे कारण नहीं हैं।
भारत अपनी आजादी के प्रारम्भ से ही न केवल गुटनिरपेक्ष राष्ट्र रहा वरन वह ऐसे सवा सौ से अधिक देशों का अगुवा भी रहा है।
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, यूगोस्लावी राष्ट्रपति जोसिप ब्रीजो (मार्शल) टीटो और मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्देल नासेर ने इस आंदोलन की नींव रखी थी। यह केवल गुट नहीं वरन एक आंदोलन था जो बड़े देशों की दादागिरी के बीच भी आगे बढ़ता रहा।
हाल के वर्षों में नरेन्द्र मोदी की सरकार ने भारतीय विदेश नीति के इस चरित्र में व्यापक बदलाव कर दिया है जिसका उद्देश्य अपने कुछ सीमित लोगों को संपन्न करने के लिये बड़े देशों से हथियार खरीदने और पूंजी निवेश कराने से अधिक कुछ नहीं है।
पड़ोसी मुल्कों का डर दिखाकर जनता की ज़रूरतों में कटौती करते हुए मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में जिस बड़े पैमाने पर अस्त्र-शस्त्र खरीदे हैं तथा पूंजीवाद को बढ़ावा दिया गया है, उससे देश को क्या लाभ पहुंचा है यह तो स्पष्ट दिख रहा है। चंद लोग अमीर हो रहे हैं और देश की अधिसंख्य जनता गरीबी रेखा के नीचे चली गई है।
भारत का यह भी इतिहास रहा है कि जहां भी मानवता पीड़ित होती है, देश ने उसके खिलाफ आवाज उठाई है और यथासंभव मदद भी पहुंचाई है- बड़े देशों से डरे बगैर। सार्क देशों का वह सिरमौर है और उससे यह सहज अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे संगठनों एवं उनकी ऐसी हरकतों का विरोध करे।
फिर, हमेशा से ही भारत इस बात को लेकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर से आवाज बुलंद करता रहा है। तालिबान संकट का संबंध तो सीधे-सीधे भारत की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं, भारत तो विश्व का नेतृत्व करने की महत्वाकांक्षा भी रखता है। अगर इन तमाम कारणों से भी भारत कोई अधिकृत बयान नहीं देता तो यह बेहद दुखद है।
सवाल तो यह है कि देश तो मुखर पर सरकार मौन क्यों है? कहा जा रहा था कि वहां भारत के कई तरह के हित दांव पर लगे हैं। पहला तो यह कि कुछ भारतीय वहां हैं और देश ने वहां काफी बड़ा निवेश किया हुआ है। अगर ऐसा है तो सरकार को यह बात खुलकर कहनी चाहिये।
जब हमारे देश के दोनों प्रमुख शत्रु पड़ोसी मुल्क चीन व पाकिस्तान तथा हमेशा का मित्र रहा राष्ट्र रूस तालिबान के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं, तो क्या ऐसे में भारत को समझ नहीं आ रहा है कि वह किधर जाये? क्या उसकी चुप्पी यह नहीं बतलाएगी कि वह तालिबान का विरोध करने का साहस जुटा नहीं पा रहा है? विशेषकर इस परिस्थिति में कि एक आतंकी संगठन व उसकी असंवैधानिक सरकार के साथ पाक-चीन दोनों खड़े हो गये हैं।
दूसरी तरफ अमेरिका एवं यूरोपीय देश अब तक अपने पत्ते छिपाये हुए हैं। नई अफगानी सरकार को मान्यता देना इन विकसित देशों के लिए संभवत: कठिन होगा क्योंकि वैसे में उनकी अपनी जनता विरोध कर सकती है। इन स्थितियों को देखते हुए यह भी लगता है कि कुछ कहने या करने के लिए कहीं भारत इन बड़े देशों का मुंह तो नहीं ताक रहा है।
एक शक्तिशाली तथा लोकतंत्र में आस्था रखने वाले भारत जैसे देश के लिए यह उचित नहीं होगा। सच तो यह है कि उसे अपनी बात साफ़ तौर पर रखनी होगी। वह इस समय (एक माह के लिए ही सही) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष भी है अत: उसकी नैतिक जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है।