राहुल का बदला राजीव गांधी से
● शकील अख्तर
अब शायद बैलगाड़ी से चलना ही बाकी है! मगर शायद राहुल न मानें। हद से ज्यादा संवेदनशीलता और सिद्धांत शायद राजनीति में सबसे बड़ी बाधा हैं। शहरी भीड़ भाड़ में पशु को लाना उसके साथ अत्याचार है। बहुत बारीक संवेदना की बात है। मगर इस परिवार के साथ समस्या यही है कि ये कुछ ज्यादा ही करुणामयी हैं। अपने पिता के हत्यारों को माफ कर देते हैं। उनसे जाकर जेल में मिल आते हैं। तो बैलगाडी गांव में या अपने नियमित रास्तों पर ठीक है। मगर जब शहर में लाकर बैलों को गाड़ी में जोता जाता है तो वे घबराए, डरे हो जाते हैं। खासतौर से प्रदर्शन की भीड और उत्तेजना से। यह उन पर जुल्म है।
तो खैर राहुल ट्रैक्टर चलाकर, साइकल पर संसद आ गए। संसद से पैदल मार्च करते हुए किसान संसद में जंतर मंतर पहुंच गए। मीडिया ने नहीं दिखाया, अखबारों ने छोटा सा अंदर छापा। मगर बात रुक नहीं पाई। जिसे कहते हैं कि हवा से भी उड़ जाती है। ऐसे ही यह बात भी उड़कर खेत, गांव तक पहुंच गई। कुछ सोशल मीडिया का योगदान है और बाकी शायद बात में दम था कि कानों कान होती हुई देश भर में पहुंच गई कि राहुल किसानों के समर्थन में सड़कों पर है। किसान संसद में नीचे बैठकर किसानों के भाषण सुन रहे है।
सरकार चौंक गई। सरकार और भाजपा को राहुल की सक्रियता से फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें अपने मीडिया पर इतना भरोसा है कि वे सोचते हैं कि राहुल कुछ भी कर ले वह जंगल में मोर नाचा ही होकर रह जाएगा। जब हमारे टीवी चैनल दिखाएंगे ही नहीं, अख़बार छापेंगे ही नहीं तो जनता को क्या पता चलेगा? लेकिन वे भूल गए कि जब जनता के मतलब की बात होती है तो वह कहीं से भी सुन लेती है। जानकारी पा लेती है। इस बार भी वैसा ही हुआ। और नतीजा यह हुआ कि अभी तक राहुल क्या है? राहुल कुछ नहीं है। राहुल क्या करेगा, कहने वाले हिल गए।
बेटे का बदला बाप से निकाला गया। उस राजीव गांधी से जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को आपरेशन के लिए अमेरिका पहुंचाया था। और कभी बताया नहीं। राजीव की शहादत के बाद खुद वाजपेयी ने बताया था।
खेल रत्न पुरस्कार 1992 में राजीव की शहादत के बाद स्थापित किया गया था। 1982 के दिल्ली एशियाड खेल बहुत सफलता पूर्वक करवाने वाले राजीव के सम्मान में इस पुरस्कार के साथ उनका नाम जोड़ा गया था। कांग्रेस तो अपना गौरवशाली इतिहास बताती नहीं। कुछ उसके नेताओं को मालूम भी नहीं है कि एशियाड खेल की परिकल्पना से लेकर पहले एशियाड गेम 1951 में दिल्ली में करवाने में नेहरू की क्या भूमिका थी!
दुनिया में ओलम्पिक के बाद आज भी एशियाड ही सबसे प्रतिष्ठित और बड़ा खेल मुकाबला है। 51 के बाद फिर इन्दिरा गांधी ने इन्हें 1982 में करवाया था। और इसकी जिम्मेदारी राजीव गांधी ने उठाई थी। प्रसंगवश यहां इतना सा और बता दें कि आजादी के बाद जो दिल्ली बनी है, विकास हुआ है उसमें इन दोनों एशियाड और उसके बाद 2010 में हुए कामनवेल्थ गेम के आयोजन का बड़ा हाथ है। बाकी तो दिल्ली और नया भारत बनाने का श्रेय केजरीवाल और मोदी जी जिसे लेना हो ले ले।
तो उन राजीव का नाम हटाकर आनन फानन में पुरस्कार ध्यानचंद के नाम पर कर दिया गया। मांग तो थी मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने की लेकिन उसके बदले पहले से चले आ रहे एक पुरुस्कार का नाम बदल दिया गया। इससे खिलाड़ियों को क्या फायदा होगा अभी तक कोई नहीं बता पाया। वही पुरस्कार है, बस नाम बदल दिया। मगर पेश ऐसे किया जा रहा है जैसे भारत की खेल संस्कृति बदल दी गई हो।
अब हर स्टेडियम में खेल मैदान में बच्चों के लिए लाकर बन जाएंगे। बहुत छोटी चीज है। मगर आज तक जूनियर खिलाड़ियों के लिए। प्रेक्टिस मैदानों पर उनकी किट रखने का इंतजाम नहीं है। अच्छे कैंटिन नहीं हैं। साफ पानी नहीं है। रोज भारी भरकम बैग जिसमें खाने का सामान और पीने का पानी भी रखना पड़ता है उठाए प्रेक्टिस के लिए आना पड़ता है। तो राजीव गांधी का नाम हटाने से सिवाय भक्तों के खुश होने के और कुछ नहीं हुआ। इससे न राहुल पर फर्क पड़ेगा और राजीव गांधी पर तो पड़ना ही क्या है!
राहुल जिद्दी चीज हैं। खासतौर पर पिछले डेढ़ साल के कारोना के कठिन काल ने उन्होंने जो सक्रियता दिखाई वह असाधारण थी।
जब सब घरों में बैठे थे, राहुल फुटपाथ पर मजदूरों का हालचाल पूछ रहे थे। दलित लड़की के बलात्कार के मामले में हाथरस जाते हुए पुलिस के धक्कों से नीचे गिर रहे थे। कितनी ही प्रेस कान्फ्रेंसें करके मीडिया के हर उल्टे सीधे सवालों के जवाब दे रहे थे। और अभी 9 साल की बच्ची के बलात्कार, हत्या और उसकी लाश जला दिए जाने के मामले में दिल्ली के नांगल गांव पहुंच कर परिवार को सांत्वना दे रहे थे।
और इन सबकी गाज गिरी उनके पिता और शहीद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर। खेल रत्न से उनका नाम ऐसे हटाया गया जैसे परिवार से एसपीजी की सुरक्षा वापस लेने और सुरक्षा कारणों से प्रियंका को मिला सरकारी आवास खाली कराने के फैसले लिए गए थे।
सरकार इस तरह के हर फैसले लेते समय सोचती है कि अब राहुल रक्षात्मक हो जाएंगे। डर जाएंगे। मगर अपने पिता और दादी की शहादत को देख चुके राहुल शायद डर नाम के शब्द से परिचित ही नहीं हैं। उन्होंने अभी कहा था कि तुम मुझे मार सकते हो मगर रोक नहीं सकते।
तो ऐसे राहुल को, जिस के लिए सरकार और भाजपा बार बार कहती है कि राहुल कुछ नहीं हैं, जिसे नगण्य ही नहीं उपहास का पात्र बनाने के लिए पिछले 15 साल से लगातार अभियान चल रहा है, जिसमें भाजपा और संघ परिवार लगा हुआ है, इससे उनके मोदी सरकार से लड़ने के साहस में कभी कोई कमी नहीं दिखी। बल्कि उनके संघर्ष में एक निरंतरता आ गई।
और अब उन पर एक हमला ट्वीटर के जरिए करवाया गया है। उनका अकाउंट सस्पेंड कर दिया गया। आरोप यह है कि उन्होंने बलात्कार की शिकार बच्ची के परिवार से मिलकर और उसके फोटो ट्वीटर पर डालकर परिवार की पहचान उजागर कर दी। आश्चर्य की बात है कि जो लोग ट्वीटर पर रोज एक से बढ़कर एक गंदी गालियां देते हैं, पीड़ितों पर ही सवाल उठाते हैं उनके खिलाफ तो कोई कार्रवाई नहीं होती उल्टे जो न्याय मांगने जाते हैं उन पर रोक लगा दी जाती है। लेकिन क्या इस सबसे राहुल को रोका जा सकेगा?
सरकार, संघ परिवार, कांग्रेस का एक हिस्सा, विपक्ष के कुछ नेता और लगभग संपूर्ण मीडिया राहुल के पीछे पड़ा हुआ है। मगर राहुल इन सबसे अविचलित अपनी बात कहे जा रहे हैं।
राजनीति में जीत बहुत महत्वपूर्ण होती है। राहुल ने अभी तक कोई बड़ी जीत हासिल नहीं की है। मगर नफरत और विभाजन की राजनीति के खिलाफ और किसान, मजदूर, आम जनता के हक में जिस तरह राहुल लड़ रहे हैं वैसा भी राजनीति में बहुत कम देखा गया है। इतने व्यक्तिगत हमले, उपहास, पार्टी के अंदर से धोखा किस के साथ हुआ है? और इसमें सबसे आश्चर्यजनक यह बात कि राहुल इतने हमलों के बावजूद अपनी आदर्शवादी राजनीति की टेक छोड़ने को तैयार नहीं।
“हानि लाभ, जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ” को राहुल शायद सबसे ज्यादा अमली तरीके से जी रहे हैं।