मोदी जी, इतिहास की धारा को बदलने की कोशिश न करें!

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सत्ता में आने के बाद लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों का पालन न करना देश को मध्ययुग की तरफ़ धकेलने की कोशिश है। सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे लोग इतिहास की धारा को कुछ समय के लिये रोक तो सकते हैं, पर उसको पलट नहीं सकते। हां, जब तक धारा बाधित रहेगी, तब तक इतना नुक़सान हो चुका होगा कि उसकी भरपाई करने में सालों लग जायेंगे। पर शायद इस युग की यही सबसे बड़ी त्रासदी है।

● आशुतोष

फ़्रेंच दार्शनिक वॉल्टेयर ने कहा था “मैं तुम्हारे विचारों से नफ़रत करता हूँ, फिर भी तुम्हें वो कहने के अधिकार की रक्षा के लिये जान भी दे सकता हूँ।” वाल्टेयर ने यह बात 18वीं शताब्दी में कही थी। आज 22वीं शताब्दी है। चार शताब्दी पहले।

यह वह वक़्त था जब यूरोप में चर्च और राजशाही के ख़िलाफ़ बग़ावत का ऐलान हो चुका था। भारत के मध्यकालीन इतिहास में राजशाही तो थी, लेकिन धर्म ने सत्ता और समाज को उस तरह से नही जकड़ रखा था जिस तरह से यूरोप में। वहाँ समाज का कोई भी धड़ा धर्म की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकता था। यहाँ तक कि राजा को भी शादी या तलाक़ के लिये धर्म की इजाज़त चाहिये होती थी। कैथोलिक चर्च इतना ताक़तवर था कि राजा भी उसके सामने नतमस्तक रहते थे। धर्मगुरु पोप को राजाओं का राजा भी कहा जाता था।

धर्म की जकड़न

सोलहवीं शताब्दी आते आते धर्म की जकड़न इतनी बढ़ गयी थी कि चर्च पैसे लेकर यह तय करने लगे थे कि किसको स्वर्ग जाना है और किसको नर्क। कोई कितना भी बड़ा पाप कर ले लेकिन चर्च को मोटी रक़म दे कर वह अपने पाप माफ़ करवा सकता था और मुक्ति पा सकता था।

ईसाई धर्म के इस पाखंड के ख़िलाफ़ जर्मनी के एक छोटे शहर में एक धर्मगुरु मार्टिन लूथर खड़े हो गये। लूथर ने धर्म की इस सत्ता को चुनौती दी।

मार्टिन लूथर

सम्राट और धर्म गुरु के सामने उनकी पेशी हुई, उन्हें आदेश दिया गया कि वे अपने आरोपों को वापस ले, नहीं तो मृत्यु दंड मिलेगा, ज़िंदा जला दिया जायेगा। उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। सैक्सनी के राजा की कृपा से वे बच पाये और फिर उन्होंने बाइबिल का अनुवाद लैटिन से जर्मन भाषा में किया और धर्म को धर्म गुरुओं के चंगुल से छुड़ा कर आम लोगों तक पहुँचा दिया।

यहाँ से ईसाई धर्म के दो फाड़ हो गये और प्रोटेस्टेंट की नींव पड़ी। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट में लंबा संघर्ष हुआ, हज़ारों जानें गयी लेकिन यह तय हो गया कि धर्म की व्याख्या करने का अधिकार आम नागरिक को मिल गया, उसे अब ईश्वर को पाने के लिये किसी पादरी या पोप के पास जाने की ज़रूरत नहीं थी।

धर्म की सत्ता कमज़ोर होते ही बुद्धि और विवेक के नये दरवाज़े खुल गये। ईश्वर की सत्ता को वॉल्टेयर ने चुनौती तो नहीं दी, लेकिन यह कहा कि इस ब्रम्हाण्ड में जो कुछ है, उसे मनुष्य को अपने विवेक की कसौटी पर कसने के बाद ही स्वीकार करना चाहिये।

नए युग की शुरुआत

और फिर प्रबोधन युग की शुरूआत हुयी। रेने डेकार्ट जैसे दार्शनिक ने लिखा, “मैं सोचता हूँ इसलिये मैं हूँ।” उन्होंने मानव समाज को हर चीज पर शक करना सिखाया। उनका मानना था – ‘शक करेंगे तो सोचेंगे, और सोचेंगे तो अपने अस्तित्व का एहसास होगा’। जब मनुष्य ने उन्मुक्त हो सोचना शुरू किया तो पाया कि सेब नीचे ही क्यों गिरता है। उसे पेड़ से नीचे गिरते सबने देखा था। लेकिन न्यूटन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सोचा कि सेब नीचे ही क्यों गिरता है। ऊपर क्यों नहीं जाता। उनकी इस सोच ने विज्ञान को नई दिशा दी।

धर्म की जकड़न से व्यक्ति आज़ाद हुआ, विवेक के रथ पर सवार हुआ, उसके अंदर का इंसान फड़फड़ा कर बाहर निकल आया और वह आज़ादी की माँग करने लगा। फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो के शब्दों में उसने पाया – ‘वो पैदा तो आज़ाद हुआ है लेकिन हर तरफ़ ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है’। लिहाज़ा उसने विद्रोह कर दिया और अमेरिकी और फ़्रांसीसी क्रांति उसकी इसी बग़ावत का नतीजा है। राजशाही को सरेंडर करना पड़ा और लोकतंत्र की नींव पड़ी।

अब राजा पृृथ्वी पर ईश्वर का अवतार नहीं रह गया। धर्मगुरु से स्वर्ग और नर्क भेजने का अधिकार छीन लिया गया।

संविधान

ब्रिटेन में राजा को संसद और संविधान के अधीन कर दिया गया। पोप की सत्ता वेटिकन सिटी तक ही महदूद कर दी गयी। वॉल्टेयर, बेकन, डेकार्ट, न्यूटन जैसों ने जो अलख ज़गाई उसका नतीजा यह हुआ कि बड़े- बड़े साम्राज्य धराशायी हो गये। आधुनिक समाज में व्यक्ति और उसकी स्वतंत्रता सर्वोपरि मूल्य बन गये। बीसवीं शताब्दी को लोकतंत्र का युग कहा गया।

अंग्रेजों की ग़ुलामी के दौर में भारत के स्वतंत्रता सेनानी यही तो कह रहे थे कि हमारे देश में शासन का अधिकार हमारे लोगों के पास हो। विदेशी हम पर कैसे शासन कर सकते हैं? गांधी और नेहरू के नेतृत्व में देश ने व्यक्ति के बुनियादी मूल्यों को बहाल करने की लड़ाई लड़ी। उसे अपने शासक चुनने का अधिकार मिले, सब बराबर हो, बोलने की आज़ादी हो।

बी. आर. आम्बेडकर

इसलिए जब देश आज़ाद हुआ तो समानता, स्वतंत्रता को मूलभूत अधिकारों की श्रेणी में रखा गया। यानी सरकारें लोगों की वाणी पर अंकुश नहीं लगा सकतीं। उसकी स्वतंत्रता का हरण नहीं किया जा सकता। इन मूल्यों की वजह से ही पूरी दुनिया में भयानक ग़रीबी के बावजूद भारत का नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता था। जब इंदिरा गांधी ने वाणी की स्वतंत्रता को ख़त्म करने की कोशिश तो देश ने उन्हें उखाड़ फेंका।

मौजूदा समय में शासन व्यवस्था ऐसे लोगों के हाथ में है, जिन्हें भारतीय संविधान से ही चिढ़ है। वे एक ऐसी विचारधारा के मानने वाले हैं जो नेता से सवाल- जवाब की इजाज़त नहीं देता।

वाणी की स्वतंत्रता पर हमला

लीडर का कहना पत्थर की लकीर है। उसकी अवहेलना नहीं हो सकती। लोकतांत्रिक मूल्य उनकी परंपरा से ग़ायब हैं। स्वतंत्र चिंतन के लिये स्थान नहीं है।

यही कारण है कि 2014 के बाद से बहुत ही क़रीने से वाणी की स्वतंत्रता को समाप्त किया जा रहा है। मीडिया की आज़ादी को काफ़ी हद तक बंधक बना लिया गया है। टीवी चैनल पूरी तरह से सत्ता के ग़ुलाम बन गये हैं। उन्हें सत्ता द्वारा इस्तेमाल होने में कोई तकलीफ़ नहीं है और न ही उन्हें इसमें बुराई लगती है।

कुछ डरे हुए हैं। कुछ विचारधारा के तिलिस्म में डूबे हैं तो कुछ को अपने ख़ज़ाने में आते पैसों की परवाह है। जैसे जैसे बैंक बैलेंस बढता जाता है, वैसे वैसे सत्ता की पुंगी बजाने में उन्हें और मज़ा आता है।

लेकिन जैसा की हर युग में होता और हर काल में कोई न कोई विद्रोही पैदा हो ही जाता है। दुनिया कुछ सिरफिरों की वजह से ही प्रगति करती है।

ऐसे में भारत में भी कुछ व्यक्ति और कुछ संस्थान अभी भी बचे हैं जो सत्ता की पुंगी बजाने से इंकार करते हैं। ऐसे विद्रोहियों को सलीब पर लटकाने के लिये, सत्ता चाहे वो धर्म की हो या राजनीति की, हमेशा तैयार रहती है।

प्रेस पर हमला

इसलिये तैयार रहती है कि उसे पता होता है कि अगर यह प्रवृत्ति परवान चढ़ गयी तो पाँव उखड़ने में वक्त नहीं लगेगा।

पिछले दिनों ‘दैनिक भास्कर’ और ‘भारत समाचार’ पर सरकारी छापे अपने पाँवों को उखड़ने से बचाने की कोशिश का नतीजा है। कोविड के समय में सरकारों के निकम्मेपन की वजह से हज़ारों लोगों की जानें गयी। इन दोनों संस्थानों ने इस सच को जनता के सामने बिना डरे रखा।

अन्यथा मुख्यधारा मीडिया तो सरकार के हर काम की सराहना तो कर रहा था। एकाध अख़बारों ने तो बेशर्मी की सारी सीमाएँ ही लांघ दी। ये वो अख़बार हैं जिन्होंने सरकार के इस दावे को सही साबित करने की बेशर्म कोशिश की कि हिंदू अपने लोगों के शवों को नदी में बहाते हैं या फिर उन्हें गाड़ देते हैं। ऐसे में अगर कोई अख़बार या टीवी ये सच लोगों सामने रखे कि गाँव के गाँव हैं जहाँ भारी संख्या में लोगों की मौत हुई और परिजन लाशों को नदी में बहाने के लिये मजबूर हुए, तो फिर सत्ता तो कुपित होगी ही।

पेगासस से जासूसी

वह सरकार लोकतंत्र विरोधी ही होगी जो अपने पत्रकारों के फ़ोन की पेगासस से पड़ताल करेगी। फ़ोन टैपिंग या पत्रकारों की गुप्तचरी हर सरकार करती है, लेकिन वो साफ्टवेयर जो किसी महिला पत्रकार की निजता को तार तार करती है, उसके इस्तेमाल की इजाज़त देना एक आपराधिक कृत्य है। पर ऐसा हुआ और सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि उसने इजाज़त दी।

पेगासस की निगरानी लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है। उसे ख़त्म करने की कोशिश है। और अपनी ग़लती न मानना, यह साबित करता है कि सत्ता पूरी तरह से निरंकुश हो गयी है, उसके लिये लोकतंत्र सत्ता में आने और बने रहने का एक माध्यम मात्र है।

सत्ता में आने के बाद लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों का पालन न करना इस बात का प्रमाण है कि देश को उस मध्ययुग की तरफ़ धकेलने की कोशिश की जा रही है जब सम्राट ईश्वर के अवतार हुआ करते थे और जिनसे सवाल पूछने का अर्थ होता था अपनी गर्दन उतरवाने के लिये तैयार होना।

सत्ता प्रतिष्ठानों में बैठे लोगों को यह पता होना चाहिये कि इतिहास की धारा को कुछ समय के लिये रोका तो जा सकता है, पर उसको पलटा नहीं जा सकता। दुनिया वॉल्टेयर के जमाने से बहुत आगे निकल चुकी है। लेकिन यह भी सच है कि जब तक धारा बाधित रहेगी, तब तक इतना नुक़सान हो चुका होगा कि उसकी भरपाई करने में सालों लग जायेंगे। पर शायद इस युग की यही सबसे बड़ी त्रासदी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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