यूपी : ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के नतीजे पर जश्न महज़ भाजपा की खुशफ़हमी है
उत्तर प्रदेश के ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में तिकड़म, धनबल, दबाव आदि के सहारे मिली जीत को जिस तरह ‘जनता-जर्नादन का आशीर्वाद’ और ‘जनविश्वास की जीत’ बताया जा रहा है, उससे लगता है कि हमें लोकतंत्र के लिए नई परिभाषा ढूंढना शुरू कर देना चाहिए।
● मनोज सिंह
भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत अध्यक्षों के 75 में से 67 पद जीत लिए। मुख्य विपक्षी दल सपा के हाथ सिर्फ छह सीट आई। दो सीटों – जौनपुर में बाहुबली पूर्व सांसद धनंजय सिंह की पत्नी तो प्रतापगढ़ में पूूर्व मंत्री रघुराज प्रताप सिंह ‘राजा भैया’ के प्रत्याशी जीते। इस जीत पर भाजपा में नीचे से ऊपर तक जबर्दस्त खुशियां मनाई जा रही हैं। जश्न का माहौल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने ट्विटर पर इस जीत को ऐतिहासिक करार देते हुए खुशी जताई है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया कि ‘यूपी जिला पंचायत चुनाव में भाजपा की शानदार विजय विकास, जनसेवा और कानून के राज के लिए जनता जर्नादन का दिया हुआ आशीर्वाद है। इसका श्रेय मुख्यमंत्री योगी जी की नीतियां और पार्टी कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम को जाता है। यूपी सरकार और भाजपा संगठन को इसके लिए हार्दिक बधाई।’
गृहमंत्री अमित शाह ने अपने ट्वीट में इस जीत को ‘भव्य’ करार दिया। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ‘प्रभावी जीत’, भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने ‘शानदार जीत’ बताया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में जीत को ऐतिहासिक बताते हुए इसका श्रेय प्रधानमंत्री की लोक कल्याणकारी नीतियों और उत्तर प्रदेश में स्थापित सुशासन को दिया।
तमाम अखबारों में भी जिला पंचायत अध्यक्ष पदों पर जीत को ‘भाजपा की रिकॉर्ड जीत, ‘भाजपा का पूरब से पश्चिम तक परचम लहराया’ शीर्षक से बखान किया गया है। कुछ अखबारों ने यह भी लिखा कि योगी और स्वतंत्र देव सिंह की जोड़ी ने विधानसभा चुनाव के पहले का सेमीफाइनल जीत लिया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी उत्साह भरे स्वर में कहा कि भाजपा विधानसभा चुनाव में 300 से अधिक सीटें जीतेंगी।
भाजपा और मीडिया के ये बड़े दावे कितने खोखले हैं, इसको हर कोई जानता है क्योंकि जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से होता है यानि अध्यक्षों को जिला पंचायत सदस्य चुनते हैं।
जिला पंचायत सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष तरीके से होता है यानि जिला पंचायत सदस्यों को जनता चुनती है। इसलिए यदि ‘जनता-जर्नादन के आशीर्वाद, सुशासन और जन कल्याणकारी नीतियों’ की कसौटी पर जीत को परखना है तो जिला पंचायत सदस्यों की जीत को परखना चाहिए क्योंकि वे सीधे मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं।
जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव हमेशा से धनबल, बाहुबल और सत्ता की मदद से जीते जाते रहे हैं, इसलिए जिसकी सत्ता रही है, उसी ने सबसे अधिक जिला पंचायत अध्यक्ष जिताएं हैं। बसपा सरकार और सपा सरकार में हुए चुनाव में सबसे अधिक जिला पंचायत अध्यक्ष इन्हीं दलों के जीते थे। तब उनकी जीत को भी ‘जनता जर्नादन के आशीर्वाद व सुशासन-जन कल्याण‘ की जीत माना जाना चाहिए और यह भी जानना चाहिए कि एक वर्ष के भीतर हुए विधानसभा चुनावों में बसपा और सपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था।
भाजपा नेता बड़ी चतुराई से दो महीने पहले जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव में अपनी हार की चर्चा किए बिना जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव की जीत को जनता-जर्नादन का आशीर्वाद बताते हुए प्रचारित कर रहे है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी भाजपा के रंग में रंगकर उसकी ही भाषा बोल रहा है जबकि दो महीने पहले इसी मीडिया ने जिला पंचायत सदस्य चुनाव के परिणाम को भाजपा के लिए खतरे की घंटी बताया था।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि दो मई की शाम से जब जिला पंचायत सदस्य चुनाव के परिणाम आने शुरू हुए तो भाजपा के सोशल मीडिया हैंडल परिणामों को लेकर खामोश थे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ट्विटर हैंडल से भाजपा की जीत-हार के बारे में कोई आवाज नहीं निकली थी। इसके बजाय वे जीते हुए सभी प्रत्याशियों को बधाई दे रहे थे। पांच मई को उन्होंने ट्वीट किया, ‘जनता-जर्नादन का आशीर्वाद प्राप्त कर उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में विजयी हुए सभी प्रत्याशियों को हार्दिक बधाई। इस चुनौतीपूर्ण कालखंड में आप सभी स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर सहयोग करें तथा मानवता की सेवा में सहभागी बनें।’
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह के ट्विटर हैंडल से पंचायत चुनाव परिणाम पर कोई ट्वीट नहीं किया गया था। सिंह पांच मई को पश्चिम बंगाल में हिंसा के खिलाफ धरना देते हुए अपनी तस्वीर शेयर कर रहे थे। उत्तर प्रदेश भाजपा के ट्विटर हैंडल से भी पंचायत चुनाव परिणाम पर दो मई के बाद कोई ट्वीट नहीं है।
दलीय आधार पर लड़े गए जिला पंचायत सदस्य चुनाव पर भाजपा और उसके नेता इसलिए खामोश थे कि परिणाम पर बोलने लायक कुछ था ही नहीं। वे गहरे सदमे में थे। पश्चिम बंगाल में हार के साथ-साथ पंचायत चुनाव में हार ने उन्हें गहरा सदमा दिया था।
प्रदेश के 75 जिलों के 3,050 जिला पंचायत सदस्यों का चुनाव अप्रैल महीने में चार चरण में हुए थे और इसका परिणाम दो मई को मतगणना के बाद घोषित किए गए। सभी परिणाम आने में चार दिन लग गए।
सभी दलों ने अधिक सीट जीतने का दावा किया लेकिन समाचार पत्रों में छपी खबरों के अनुसार सबसे अधिक सीटों करीब 1,100 पर निर्दलीय जीते। उसके बाद करीब 800 सीटों पर सपा जीती। भाजपा तीसरे स्थान पर रही और वह 600 से कुछ अधिक सीट जीतने में कामयाब रही। बसपा खेमे से 300 से अधिक सीट जीतने का दावा किया गया। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने 270 सीट जीतने का दावा किया तो आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने 83 सीट और रालोद ने ओर से 65 सीटें जीतने का दावा किया।
सीटों पर जीत के बारे में सभी दलों के दावे कुछ भी हों लेकिन मीडिया में इस बारे में एकमत राय थी कि सबसे अधिक सीटें सपा ने जीती है।
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी, मुख्यमंत्री के गृह जनपद गोरखपुर सहित लखनऊ, अयोध्या, मथुरा जैसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले जिलों में भाजपा का प्रदर्शन बहुत खराब रहा।
भाजपा ने सर्वाधिक संगठित ढंग से चुनाव लड़ा था। बिहार विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद ही पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह को यूपी का प्रभारी मंत्री बना दिया गया और उन्होंने जिला पंचायत चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर सभी जिलों का दौरा किया। उम्मीदवार चुनने के लिए मानक व निर्धारित प्रक्रिया तय की गई। यह तय किया गया कि सांसद, मंत्री, विधायक के सगे-संबंधियों व नजदीकी लोगों को टिकट नहीं दिया जाएगा। बड़ी तैयारी के बावजूद भाजपा का जिला पंचायत सदस्य चुनाव में प्रदर्शन बहुत फीका रहा और वह तीसरे स्थान पर रही।
जिला पंचायत सदस्य चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद ही भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर लंबी चर्चा, मंथन, बैठकों का दौर चला। जाहिर है कि कम संख्या लेकर भाजपा जिला पंचायत अध्यक्ष की ज्यादातर सीटों पर चुनाव नहीं जीत सकती थी। इसलिए उसने इस चुनाव में किसी भी तरह जीतने के लिए पूरा दम लगा दिया।
जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने जिस कदर प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग किया, वह ऐतिहासिक भी है और अभूतपूर्व भी।
ऐसा नहीं है कि पूर्व की सरकारें प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग नहीं करती थी लेकिन योगी सरकार में जो हुआ उसने नया रिकॉर्ड बना दिया। मसलन, औरैया के डीएम का वायरल वीडियो इस बात की गवाही है, जिसमें वे हंसते हुए ‘कैमरा बंद कर सपा प्रत्याशी को पीटने’ की बात कर रहे हैं। वहीं, सिद्धार्थनगर जिले में सपा प्रत्याशी की प्रस्तावक के पति जब तमाम दबाव-प्रलोभन के बाद भी नहीं झुके, तो पुलिस ने उनके घर के सामने की सड़क को जेसीबी से खोद डाला। बागपत जिले में भी एक जिला पंचायत सदस्य के घर पुलिस जेसीबी लेकर पहुंच गई। इसके साथ ही सपा नेताओं पर एफआईआर की तो झड़ी ही लग गई थी।
सीतापुर में भाकपा माले के जिला पंचायत सदस्य अर्जुन लाल और उनके परिवार के सभी सदस्यों सहित 30 लोगों के खिलाफ जमीन कब्जा करने की एफआईआर दर्ज कर ली गई। उन्हें 36 घंटे तक उनके घर में नजरबंद रखा गया। देवरिया में एक युवा सपा नेता पर रासुका लगा दिया गया और नामांकन प्रक्रिया से लेकर मतदान तक सपा नेताओं के घर छापे का सिलसिला चलता रहा।
हालात ऐसे बना दिए गए कि 17 जिलों में भाजपा के आगे कोई प्रत्याशी नामांकन ही नहीं कर सका और यहां पर भाजपा प्रत्याशी निर्विरोध चुन लिए गए।
गोरखपुर में सपा ने जिस जिला पंचायत सदस्य को प्रत्याशी बनाया उसके खिलाफ रेप का केस दर्ज हो गया। रोज पुलिस घर पहुंचने लगी। दबाव, उत्पीड़न से तंग आकर सपा का यह प्रत्याशी नामांकन के दिन ‘अनुपस्थित’ हो गया। सपा दूसरा प्रत्याशी लेकर आई। सपा का आरोप है कि एक दिन पहले उसका अपहरण कर लिया गया। तीसरे प्रत्याशी को सपा नेता जब नामांकन पत्र भरवाने ले गए तो पुलिस ने रास्ते में रोक लिया। किसी तरह कलेक्ट्रेट गेट पर प्रत्याशी पहुंचा तो पाया कि गेट पर ताला लगा है। आखिरकार सपा प्रत्याशी नामांकन ही नहीं कर पाया।
चार जिलों में विरोधी प्रत्याशियों ने पर्चे ही वापस ले लिए और भाजपा प्रत्याशी यहां भी निर्विरोध चुन लिए गए। बागपत जिले में रालोद प्रत्याशी का नामांकन वापस कराने का जिस तरह विफल प्रयास किया गया वह भी सत्ता की साजिश का एक उदाहरण है। जिला पंचायत सदस्यों को अपने पक्ष में करने के लिए रिसॉर्ट ले जाने, 15 से 50 लाख तक एक-एक सदस्य को देने की चर्चाओं का तो कोई अंत ही नहीं हैं। हर जिले में अलग-अलग रेट खुले थे और उसके अनुसार सदस्यों की खरीद-फरोख्त हो रही थी।
कई जगह दूसरे दलों ने भी धनबल का प्रयोग करने की कोशिश की, लेकिन भाजपा के आगे वे कहीं नहीं ठहरे।
यह सही है कि सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग, उत्पीड़न-दबाव की राजनीति के खिलाफ विपक्षी दल खुलकर नहीं लड़े और न ही इसे मुद्दा बना सके। रालोद ने बागपत में और सीतापुर में भाकपा माले ने जनबल के सहारे जिस तरह सरकारी दमन-उत्पीड़न का लोहा लिया, वह एक उदाहरण है। इसी तरह सपा सड़क पर उतरी होती, तो सत्ता इतने बड़े पैमाने पर मनमानी नहीं कर पाती। सपा नेता व कार्यकर्ता जहां मजबूती और एकता से खड़े हुए उन जिलों में उन्हें जीत मिली लेकिन अधिकतर जगह उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया।
यदि इस तरह के तिकड़म, धनबल, उत्पीड़न-दबाव से जीत को ही ‘जनता-जर्नादन का आशीर्वाद और लोक कल्याणकारी नीतियों व सुशासन के प्रति जनविश्वास की जीत’ बताया जाने लगे तो हमें लोकतंत्र के लिए नई परिभाषा लिखनी शुरू कर देनी चाहिए।
