जम्मू कश्मीर की केन्द्र शासित संवैधानिकता
केंद्र की मोदी सरकार ने पहले जम्मू-कश्मीर को टुकड़ों में बांट कर केंद्र शासित राज्य बना दिया और अब वहां चुनाव कराने की कवायद में जुटी है। क्या जम्मू-कश्मीर राज्य को टुकड़ों में बांटना संविधान सम्मत था? इसे संविधानसभा की बहसों के नजर से देख रहे हैं संविधान विशेषज्ञ कनक तिवारी….
● कनक तिवारी
संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाकर केन्द्र सरकार ने निरस्त कर दिया है। विवाद भले ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, मगर सियासी पार्टियों और जम्मू कश्मीर के जन-इजलास में वह मौन तो नहीं ही होगा। यह अलग बात है कि सरकारी दबाव और मीडिया द्वारा अनदेखी करने से उसका मुखर होना दिखता नहीं है।
राज्य की हैसियत घटाकर अनुसूची 1 में उसे संघ राज्यक्षेत्र में जोड़ने का करतब संसद के अधिकारों के जरिए हुआ है। संविधान का अनुच्छेद 3 संसद को नए राज्यों का निर्माण और मौजूदा राज्यों के इलाकों, सीमाओं तथा नामों में बदलाव का अधिकार देता है।
इस प्रावधान पर संविधान सभा में 17 और 18 नवम्बर 1948 तथा 13 अक्टूबर 1949 को धारदार बहस हुई थी। तब बहस के वक्त संविधान निर्माताओं ने यह नहीं सोचा होगा कि आगे चलकर कभी राज्य के स्तर और संवैधानिक हैसियत को छोटा कर नागरिकों से सरकार चुनने का अधिकार जबरिया छीन लिया जाएगा।
विधायिका तो नागरिक मतदाताओं के वोट देने से ही बनती है। नागरिक से वह धरातल ही छीन लिया गया। सरकार शाइस्तगी में कह रही कि फैसला संवैधानिक, लोकतांत्रिक और जन-अधिकारों के अनुकूल है। अधिकार से बेदखल करना अधिकार देना कहा जा रहा?
अनुच्छेद 3 बनने तक कश्मीर के विलय का ही सवाल नहीं आया था। करीब साढे पांच सौ देसी रियासतों के भारत संघ में विलीन होने से राज्यों की सीमाएं, क्षेत्रफल और जनता के हक हुकूक के साथ सुलूक किया जाना था। उससे देश और संविधान मजबूत, सुरक्षित और जनता के पक्ष में दिखें। यह कतई सोच नहीं था कि किसी राज्य को तोड़कर केन्द्र शासित क्षेत्र कैसे बना दिया जाए। उस सूची में दिल्ली, अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप, दादरा तथा नगर हवेली आदि, पुडुचेरी और चंडीगढ़ शामिल होते गए। उनसे जम्मू कश्मीर जैसी महत्वपूर्ण रियासत से संवैधानिक, भौगोलिक या राजनीतिक तुलना का सवाल नहीं है।
जम्मू कश्मीर के विलय संबंधी अनुच्छेद पर 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में बहस और फैसला हुआ। देश के राज्यों की सीमाओं के घट बढ़ करने वाले अनुच्छेद को संविधान का हिस्सा पहले ही बनाया जा चुका था। तब तक यह कहां तय था कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा बनाया जाएगा। तब भी उसे अवनत करने के लिए अनुच्छेद 3 प्रभावशील किया गया।
कश्मीर के विलय के प्रवक्ता भारसाधक सदस्य गोपाल स्वामी आयंगर ने वचन दिया था कि विलय विलेख और अन्य विषयों पर जम्मू कश्मीर सरकार की रजामंदी ली जाएगी। इस संबंध में जम्मू कश्मीर की संविधान सभा को निर्णय लेना है। कई वायदे किए गए थे। इस सम्मिलित फैसले से सरदार पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी सहमत थे।
संविधान सभा में के.टी. शाह ने कहा था जम्हूरियत का तकाजा है कि किसी इलाके को कहीं मिलाना या मौजूदा अस्तित्व से बेदखल करना है, तो उनसे पूछिए जिन पर उसका असर होगा। अम्बेडकर के प्रस्ताव में राष्ट्रपति और संसद को अधिकार दिये गये हैं। उससे मैदानी और बुनियादी स्तर पर जन अधिकारों की हेठी हो रही है। हर बालिग व्यक्ति को राय देने का हक होना चाहिए। बहुमत की हुकूमत है लेकिन बहुमत का एकाधिकार नहीं होता।
शाह ने यहां तक कहा मैं निजी तौर पर जनमत संग्रह के पक्ष में हूं लेकिन ऐसा विचार इस सम्मानित सभा को बहुत क्रान्तिकारी लगेगा।
अम्बेडकर ने चतुराई से अनुच्छेद 3 का प्रावधान रखते हुए कहा, ‘राष्ट्रपति संबंधित राज्य की विधानसभा से सलाह कर इतमीनान किए बिना विधेयक पारित नहीं होने देंगे।’ बाद में इसे बदलकर हल्का कर दिया गया कि राष्ट्रपति केवल राय मांग लेंगे। सुनिश्चितता को बरायनाम औपचारिकता में बदल दिया गया।
अम्बेडकर ने समझाया कि विधानसभा में बहस का मतलब होगा कि जनता से सलाह मशविरा हो गया। ठाकुरदास भार्गव ने शाह को समर्थन देते कहा डा. अम्बेडकर द्वारा सुझाया संशोधन प्रस्ताव मूल प्रस्ताव से ज्यादा सख्त है। उनके वास्ते तो यह प्रस्ताव एक तरह से उस राज्य के बाशिंदों का गला घोटने के वास्ते काफी है।
संविधान सभा के सदस्य ठाकुरदास भार्गव ने दो टूक कहा,
ऐसा प्रावधान करना चाहिए कि किसी हिस्से के लोग अलविदा होना चाहते हैं तो उस इलाके में जनमत संग्रह कर उसके मुताबिक उनको अलहदा किया जाए। विधायिका का बहुमत इसकी इजाजत नहीं देगा तो विधायिका की राय लेने का क्या तुक है?
आर.के. सिधवा ने जरूर कहा, “बहुसंख्यक किसी प्रदेश का विभाजन नहीं चाहते, तो अल्पसंख्यकों का बहुसंख्यकों के अधिकार में हस्तक्षेप करना अनुचित होगा।” अम्बेडकर ने भी कहा, “अनुच्छेद 239 के तहत प्रावधान हैं कि संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के तहत राष्ट्रपति किसी राज्य के राज्यपाल को संघ राज्यक्षेत्र का प्रशासक नियुक्त कर सकता है। संविधानरचित किसी राज्य को किन परिस्थितियों में केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया जाएगा, इसके प्रतिमान तयशुदा आधार होंगे”, लेकिन निर्धारित नहीं हुए।
जम्मू कश्मीर का अवनत होना अनोखी दुखदायी संवैधानिक घटना है। ब्रजेश्वर प्रसाद के अनुसार देशी रियासतों को शुरू से ही संघ राज्यक्षेत्र के तहत रखना चाहिए और यह गृहमंत्री सरदार पटेल के अधिकार में है।
यक्ष प्रश्न यह है कि किसी राज्य की सीमा में घट बढ़ के लिए वहां की विधानसभा की राय को पुरअसर समझाया गया। विधायकों का चुनाव सातवीं अनुसूची में राज्य के लिए तयशुदा 66 विषयों के लिए कानून रचने के नाम पर होता है। अनुसूची 3 के लिए नहीं। नागरिकों से विधानसभा के जरिए या विधानसभा और नागरिकों में मतभेद होने पर जनता की राय की अनदेखी कैसे की जा सकती है?
हिन्दू मुस्लिम नफरत का इतना सैलाब है कि जम्मू क्षेत्र के लोगों ने विघटन पर भी खुशी जाहिर की याने राज्य की संवैधानिक हैसियत कम होने पर भी।
कहा जा सकता है कि कई संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करते हुए जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाया गया, फिर उसे केन्द्रशासित कर दिया गया। और यह करते समय जब राज्य में निर्वाचित संविधान सभा कार्यरत नहीं थी तो उसे राज्यपाल में ही ढूंढ़ लिया गया। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि संविधान सभा की कश्मीर बहस में संसद को अनुच्छेद 2 का अधिकार देते वक्त, यह कदापि नहीं सोचा गया था कि राज्य के क्षेत्र, सीमाओं या नाम में बदलाव करते वक्त उसका स्तर या हैसियत ही घटा दी जाए।
बंगाल चुनाव परिणाम के बाद उसे तीन हिस्सों में बांट देने का सियासी शिगूफा छेड़ा जा रहा है। उत्तरप्रदेश में कोई ताकतवर नेता न उभरे इसलिए उसके विभाजन की सुरसुरी पैदा हो गई है। महाराष्ट्र में अनुकूल हुकूमत नहीं हो तो विदर्भ आदि को अलग कर देने की बात उठे। जिस प्रदेश में केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी हारे, वहां प्रतिकूल सियासत प्रदेशों को तोड़ते चले। ऐसा तो अनुच्छेद 3 का मकसद नहीं है।
फिर भी, सियासी गणित जो भी हो, जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए विलय विलेख, जम्मू कश्मीर के संविधान, विधानसभा और जनता की राय लिए बिना फैसले कर लिए गए। संविधान जोड़ने की तमीज देता है। तोड़ने की तमीज संविधान कैसे देगा!