गंगा के लिए खड़ा हो बनारस : जल पुरुष
विकास का वर्तमान मॉडल विनाशकारी है। जब भी भारत पर संकट आया है, काशी के विद्वानों ने सामने आकर नए रास्ते सुझाने में मदद की है। गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के खिलाफ बनारस को निडर होकर खड़े होना चाहिए। – जल पुरुष राजेंद्र सिंह
● पूर्वा स्टार ब्यूरो
वाराणसी। पराड़कर स्मृति भवन में शहर के सामाजिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक समूहों के साझा समूह काशी विचार मंच की ओर से बुधवार को सम्पन्न हुए ‘गंगा की मुश्किलें’ विषयक संगोष्ठी में जुुुुटे देश के जाने-माने नदी-जल विशेषज्ञों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, इतिहासकारों और लेखकों-पत्रकारों ने शहर में गंगा का स्वरुप नष्ट करने पर चिंता जताई और कहा कि केंद्र सरकार की ये अवैज्ञानिक और अधार्मिक योजना गंगा को खत्म कर देगी। विशेषज्ञ गंगा नदी के बहाव में बाधा पड़ने को बेहद खतरनाक मान रहे हैं।
विशेषज्ञों की चिंता है कि गंगा के प्राकृतिक बहाव को बाधित कर किया जा रहा निर्माण गंगा के बहाव की दिशा को भी स्थाई तौर पर प्रभावित कर सकता है जिससे वाराणसी में गंगा का नैसर्गिक अर्धचंद्राकार स्वरूप सदैव के लिए प्रभावित हो सकता है। इसके कारण गंगा के इकोसिस्टम में स्थाई बदलाव आने का खतरा भी है। इसके कारण एक सीमित क्षेत्र में गंगा के जल के रंग में स्थाई परिवर्तन भी आ सकता है जो यहां के जलीय जंतुओं के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है। सरकार को बड़े बदलाव करने के पहले इन बिंदुओं पर विचार करना चाहिए।
केंद्र सरकार नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत वाराणसी से लेकर गंगा सागर तक इसके घाटों की साफ-सफाई और इसकी तलहटी की सफाई कर इसके जल-जीवन में सुधार कर इसे जीवन और परिवहन की दृष्टि से दुबारा उपयोगी बनाने और गंगा को पुनर्जीवन देने का दावा करती है। लेकिन जल विशेषज्ञों और वाराणसी के प्रकृति प्रेमियों की चिंता है कि सरकार के कई प्रोजेक्ट गंगा के प्राकृतिक बहाव में बाधा पैदा कर रहे हैं।
संगोष्ठी में बतौर मुख्य वक्ता बोलते हुए जानेमाने पर्यावरण कार्यकर्ता और दुनिया भर में जल पुरुष के रूप में विख्यात राजेन्द्र सिंह ने विकास के तथाकथित मॉडल को विनाशकारी बताते हुए उसकी निंदा की। उन्होंने कहा कि जब भी भारत पर संकट आया है, काशी के विद्वतजनों ने सामने आकर नये रास्ते खोजने की कोशिश की है।
उन्होंने कहा कि बनारस सिर्फ़ धार्मिक अनुष्ठानों की ही नहीं, हमारी अंतर्राष्ट्रीयता की भी राजधानी है। साफ़ नदी जल और खोई हुई पहचान को वापस पाने के लिए हमें संघर्ष करना होगा। बनारस को निडर होकर गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा और इस अभियान को रोज़ाना की गतिविधियों और नयी सूझ के साथ जोड़ना होगा।
उन्होंने गंगा की अविरलता के लिए हुए संघर्षों और 2014 के बाद की क्रूर सियासत में प्रोफेसर जी डी अग्रवाल और स्वामी निगमानंद जैसे पर्यावरणविदों की शहादत को याद किया।
उन्होंने कहा कि,
जो आदमी यह चीख-चीखकर बतलाता फिरता है कि गंगा का असली बेटा वही है और उसे माँ गंगा ने ही काशी में बुलाया है, उसने गंगा की दुर्गति करने का कोई भी काम बाक़ी नहीं छोड़ा है।
जबकि एक कम बोलने वाला शरीफ़ इंसान भारत का प्रधानमंत्री था तो उसने हमलोगों के नेतृत्व में चले जनांदोलन के बाद हमसे हुई बातचीत के असर में उत्तराखंड में बन रहे चार बाँधों का निर्माण कार्य तत्काल हमेशा के लिए रोक दिया था।
श्री सिंह ने बताया कि श्रीमती इंदिरा गाँधी ने सन 72 के पहले विश्व पृथ्वी सम्मेलन में स्वीडेन की संसद और राष्ट्रपति भवन के बीच बहती स्टॉकहोम नदी की सफ़ाई से प्रेरित होकर गंगा से ही नदियों की स्वच्छता के एक अभियान का सूत्रपात किया, जिसे 1986 में गंगा कार्ययोजना का रूप देकर राजीव गाँधी ने अमली जामा पहनाया।
उन्होंने कहा कि कुछ राजनीतिक विश्लेषक माँ की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर को राजीवजी की जीत की वजह बताते रहते हैं, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि राजीव ही पहले राजनेता हैं जिन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में नदियों के आध्यामिक और सांस्कृतिक महत्व को पहचानते हुए उसकी सफाई के मुद्दे को जगह दी। जनता ने इस लगाव और सपने को पहचाना था और कांग्रेस की यादगार जीत हुई थी।
विशिष्ट वक्ता संकटमोचन मंदिर के महंत प्रोफ़ेसर विश्वंभरनाथ मिश्र ने कहा कि गंगाजी हमारे जीने का माध्यम हैं। गंगा की 2525 किलोमीटर लंबी जीवनधारा में से बनारस में पड़ने वाला 5 किलोमीटर लंबा हिस्सा धर्म, अध्यात्म, संस्कृति और नदी की सेहत के लिहाज़ से बहुत ज़रूरी है।
बनारस में गंगा की दो सहायक नदियाँ – असि और वरुणा – गंगा की धारा को नियमित करने और घाटों से गंगा की सिल्ट को हटाने का काम प्राकृतिक ढंग से करती रही हैं। अब नहर निकालकर गंगा के इकोसिस्टम के साथ जो खेल हो रहा है वह हमें बहुत महँगा पड़ेगा।
प्रोफेसर विश्वंभरनाथ मिश्र, महंत, संकटमोचन मंदिर
उन्होंने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इस महत्व को जानकर ही गंगा कार्ययोजना का आग़ाज़ 1986 में बनारस से ही किया था। लेकिन बाद की सरकारों ने योजनाओं का नाम बदलने और विचित्र अवैज्ञानिक रास्तों पर चलने में दिलचस्पी ली। 2014 के बाद दीनापुर और सतवाँ में बने दो बड़े सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का हाल हमें मालूम ही है। इससे वाराणसी की अशुद्धियों को दूर करने में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं हुआ है।
इतिहासकार मोहम्मद आरिफ ने कहा कि गंगा सिर्फ बहते हुए पानी का नाम नहीं है। गंगा को सिर्फ पैसे से साफ नहीं किया जा सकता। इसके लिए जनसहभागिता को प्रभावी बनाना होगा। उन्नीसवीं सदी के सबसे बड़े शायर गालिब ने गंगा और बनारस की पवित्रता से अभिभूत होकर ही इसे ‘चिराग़-ए-दैर’ अर्थात ‘मंदिर का दीया’ जैसी विलक्षण कृति की रचना की। अकबर और औरंगजेब ने गंगा के जल की सफ़ाई के लिए वैज्ञानिक नियुक्त किये थे। इसके औषधीय गुणों को पहचानकर ही इसे ‘नहर-ए-बिहिश्त’ यानी ‘स्वर्ग की नदी’ माना था।
संगोष्ठी के आरंभ में विषय की स्थापना करते हुए कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल ने कहा कि तीर्थ तीर्थ हैं ही इसलिए कि वहाँ जल है। शुद्ध जल के बग़ैर किसी जगह के तीर्थ होने की कल्पना असंभव है। नदियों के जल को साफ़ बनाना इस देश के युवाओं की ज़िम्मेदारी है। अगर सीवेज का गंदा पानी गंगा में लगातार गिरता रहा तो नौजवानों को अहिंसक और ग़ैर राजनीतिक प्रतिरोध के माध्यम से उन्हें रोकने के लिए आगे आना होगा। यह भी संभव है कि उन्हें अवजल की पाइपों के सामने खड़ा होना पड़े।
कार्यक्रम की शुरूआत आशीष मिश्र के सुरों में गंगा-स्तवन से हुई। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए आचार्य विवेकदास ने कबीर की कविताओं के हवाले से पर्यावरण की चिंताओं को अनेक सन्दर्भों में याद किया।
प्रियंका गांधी ने किया था संपर्क
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष विश्व विजय सिंह ने पूर्वा स्टार को बताया कि प्रियंका गांधी जब पिछले दिनों निषादों के अधिकारों के लिए संपर्क कर रही थीं, तभी कई निषादों ने उनसे गंगा की दुर्दशा पर बात की थी। इसके बाद उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया था कि वे गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए उनके आंदोलन को अपना समर्थन देंगी और उनके आंदोलन को आगे बढ़ाएंगी। उन्होंने कहा कि गंगा के पुराने गौरवमयी स्वरूप को वापस लाने के लिए उनकी पार्टी कृतसंकल्प है।