अब जल्द ही रद्द हो सकते हैं कृषि क़ानून!

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बंगाल विधान सभा चुनाव से भी ज्यादा अप्रत्याशित रहे उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव के नतीजों से सबको उत्तर प्रदेश से भाजपा की विदाई के सिग्नल दिखने लगे हैं। संघ-बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह पता है कि उत्तर प्रदेश से विदायी का मतलब मुल्क से भी मोदी राज की विदायी है। इसीलिए संघ और भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश को लेकर ज्यादा सक्रिय हो गया है। यह सब देखते हुए यह कामना और उम्मीद करने में हर्ज नहीं है कि खेती सम्बन्धी तीन कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में भी उनको सदबुद्धि आ जाए और वे अब किसी दिन अचानक इसी तरह इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दें।

● डॉ. प्रमोद कुमार शुक्ल

कोरोना महामारी के दौरान केंद्र सरकार की विनाशकारी विफलताओं के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अक्सर बदलते निर्णयों के बाद सोशल मीडिया की एक बड़ी चर्चा यह भी है कि अब राहुल गांधी का हर कहना प्रधानमंत्री मनने लगे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कोरोना से निपटने के लिए समय समय पर केंद्र सरकार को सुझाव दिया जिसकी पहले तो सरकार की ओर से हंसी उड़ाई जाती रही लेकिन बाद में वो सारे सुझाव माने भी जाते रहे। राहुल बार बार नये कृषि कानूनों को भी वापस लेने की मांग करते हैं। इन कानूनों का क्या मतलब है, यह किसान और देश समझ चुका है और इसके खिलाफ चल रहा आन्दोलन अब खुद नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा को राजनैतिक नुकसान करने लगा है। यह चीज बंगाल चुनाव से भी साफ हुई है लेकिन उससे भी ज्यादा उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों से। यह सब देखते हुए यह कामना और उम्मीद करने में हर्ज नहीं है कि खेती सम्बन्धी तीन कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में भी उनको सदबुद्धि आ जाए और वे अब किसी दिन अचानक इसी तरह इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दें।

बंगाल विधान सभा चुनाव से भी ज्यादा अप्रत्याशित रहे उत्तर प्रदेश पंचायत चुनाव के नतीजों ने तो
संघ-भाजपा के भीतर भूचाल ला दिया है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और मीडिया इसे भले ही ज्यादा भाव न दे रहा हो लेकिन उसके नतीजे आने के बाद सबको उत्तर प्रदेश से भाजपा की विदाई के सिग्नल दिखने लगे हैं। संघ-बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को यह पता है कि उत्तर प्रदेश से विदायी का मतलब मुल्क से भी मोदी राज की विदायी है। इसीलिए संघ और भाजपा नेतृत्व उत्तर प्रदेश को लेकर ज्यादा सक्रिय हो गया है।

उधर किसान आन्दोलन से जुड़े लोग भी इन परिणामों से नए उत्साह में आ गए हैं। दिल्ली की भयंकर सर्दी और बरसात की मार के साथ ही कोविड की दूसरी लहर को भी झेल लेने और खुद की देखरेख के साथ आसपास के लोगों के इलाज और देखरेख का काम करके किसान आन्दोलनकारियों ने बता दिया कि अभी उनमें काफी दम है, उत्साह है और लम्बी लड़ाई की उनकी रणनीति काम कर रही है।

महामारी की कई गुना ज्यादा मारक लहर को झेलकर आगे बढ़े किसान आन्दोलन ने अपने ऊपर एक प्रांत, एक समुदाय का होने के आरोप को निराधार करते हुए व्यापकता हासिल की है। कोरोना के इस दौर में सिखों ने और धरने पर बैठे लोगों ने मेडिकल सेवा का जो काम किया है, उससे भी उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है।

इसलिए एक ओर भाजपा जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पंचायत समितियों के गठन में सारा दांव खेतिहर जाट जाति के लोगों पर लगा रही है वहीं जाट और मुसलमान भाजपा तथा बसपा से निकलकर कांग्रेस, सपा और स्व. अजित सिंह की पार्टी की तरफ रुख कर रहे हैं। भाजपा चुनावों के मद्देनज़र जोड़तोड़ और हिसाब लगाने में लग गयी है। उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन से लेकर पंचायत स्तर तक पार्टी को सक्रिय करने का ताना बाना बुन रही है।

उधर, पंजाब में भी चुनाव होने हैं पर वहाँ भाजपाई खुले तौर पर कोई कार्यक्रम करने से भी बच रहे हैं। केन्द्रीय नेतृत्व ने एक बार फिर से अकाली दल के कंधे पर बन्दूक रखकर फायरिंग शुरू कर दी है। हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की पार्टी के विधायकों पर जबरदस्त दबाव है। जब टोहना के विधायक के यहाँ धरना देने पहुंचे किसानों से शासन ने सख्ती करने की कोशिश की तो उसे लेने के देने पड़ गए। बहुत साफ़ चुनौती देते हुए किसान नेता दिल्ली से वहाँ पहुंचे और और अपने गिरफ्तार साथियों को छुड़ाकर ही वापस आए। जाहिर तौर पर अब सरकार को भी कथित सख्ती की सीमा दिखने लगी है।

छह महीने से ज्यादा से चल रहे किसान आन्दोलन के दौरान किसानों और सरकार के कामकाज और व्यवहार ने भी पलड़ा किसानों की तरफ किया है। तरह तरह के दोषारोपण और ट्रैक्टर रैली के दौरान किसानों के नाम पर लाल किले में हंगामा कराने और धरने पर बैठे शांतिपूर्ण किसानों पर हमले कराने जैसी ओछी हरकतों के बाद सरकारी पक्ष जिस तरह कोरोना काल में भी चुनाव कराने, कुम्भ और आईपीएल के आयोजनों के साथ कोरोना की दूसरी लहर के बारे में जानकारों की चेतावनी को नजरन्दाज करके सेंट्रल विस्टा और मोदी जी के लिए विमान खरीद में लगा रहा और लोग बीमारी से कम ऑक्सीजन जैसी मामूली सुविधाओं के अभाव में ज्यादा मरते रहे, उससे मोदी का सारा आभामंडल बिखर चुका है।

दूसरी ओर किसानों ने खाद और डीजल की बढ़ती कीमतों के बीच फसल पैदा करके मुल्क और समाज को आश्वस्त किया है कि कम से कम खाने की कमी नहीं होने वाली है। इसके उलट, विकास और गरीबी घटने का दावा करने के साथ अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने का खेल भी सरकार की तरफ़ से चल रहा है। पर यही सरकार किसानों के साथ साफ मन से इन तीनों कानूनों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली पर बात करने को तैयार नहीं है। उसे चार सौ रुपए क्विंटल कम पर गेहूं बेचने और मुफ्त राशन देने में कोई हर्ज नहीं दिखता क्योंकि यह पैसा करदाताओं के सिर पर ही जाना है, लेकिन समझदार किसान नेताओं से बातचीत करके इस समस्या का कोई बढ़िया हल ढूंढने में कोई रुचि नहीं है।

मंडी प्रणाली खत्म होनेे, अन्याय होने पर किसान के अदालत भी न जा पानेे और बड़ी कम्पनियों की स्टॉक होल्डिन्ग पर रोक न होनेे से किसान और खेती का होनेे वाला नुकसान की समझ नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली को न हो, यह मानना तो भोलापन होगा लेकिन अब जब सीधी लड़ाई में किसान बढ़त बना चुके हैं और ज्यादा लम्बी लड़ाई के लिए तैयार लगते हैं तब भी अपनी ख़ुराफ़ातों से बाज न आना समझ से परे है।

यह जरूर हुआ है कि कोरोना से मुल्क और अपनी दुर्गति कराने के बाद उनके तेवर कमजोर पड़े हैं। मोदी जी ‘यू-टर्न’ लेने में भी माहिर हैं। टीकाकरण पर हुई नई घोषणा भी यू-टर्न ही है। यह लिस्ट बहुत लम्बी है। सो उम्मीद करनी चाहिए कि तीनों कृषि कानूनों और बोनस में आ गए न्यूनतम समर्थन मूल्य के मसले को भी वे जल्दी ही एक और यू-टर्न से निपटाएंगे। जिन्हें शक हो उनको मोदी राज शुरू होते ही आए भूमि अधिग्रहण कानून और समय समय पर हुए उनके तमाम निर्णयों के हश्र को याद करना चाहिए जबकि तब किसान आन्दोलन इतना व्यवस्थित और मज़बूत नहीं था।

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