‘प्रोपेगंडा संघ’ के निशाने पर क्यों रहते हैं पंडित नेहरू

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● आलोक शुक्ल

पंडित नेहरू, जिन्होंने सुख समृद्धि से भरा जीवन मुल्क की आजादी के नाम कुर्बान कर दिया। जवानी आन्दोलनों, जेल यातनाओं के हवाले और चौथापन एक उजड़े लुटे-पिटे देश को बनाने, सजाने सँवारने में होम कर दिया। 1947 में भारत की आजादी के वक्त दुनिया के अधिकतर राजनयिक विश्लेषक घोषणा कर रहे थे कि सदियों से लूट का शिकार हुआ भारत जो आज आर्थिक विपन्नता में खड़ा है वह या तो टुकड़ों में बंट जाएगा या फिर लोकतंत्र छोड़ कर तानाशाही स्वीकार कर लेगा। लेकिन ये तमाम भविष्यवाणियां गलत साबित हुईं। देश तरक्की की डगर पर चला और लोकतंत्र को पुख्ता किया, क्योंकि भारत के पास गांधी के वारिस हुकूमत में थे और सत्ता की बागडोर पंडित नेहरू के हाथ थी।

पंडित नेहरू ने वैज्ञानिक संस्कृति से लबरेज भारत की कल्पना की थी और ये वही दृष्टिकोण था जिसने उन्हें अपने देश के बेहतरीन संस्थान बनाने के रास्ते पर आगे बढ़ाया।

पंडित नेहरू ने देश में आईआईटी और आईआईएम जैसे अभियांत्रिकी और प्रबंधन संस्थानों से लेकर उम्दा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) जैसे वैज्ञानिक शिक्षण और स्वास्थ्य देखभाल की बुनियाद रखी। प्रत्येक नयी नीति या योजना के साथ उनकी सोच वाले भारत को इसके बाद की प्रत्येक कांग्रेस सरकारों द्वारा ठोस तरीके से आगे बढ़ाया गया, जिसमें दो पहलू हमेशा सबसे आगे रहे हैं: पहला, समाज के सबसे कमजोर वर्गों को फायदा देना और दूसरा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का सर्वोत्तम प्रदर्शन करना। एम्स को चिकित्सा शिक्षा का पैटर्न विकसित करने तथा चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अत्याधुनिक अनुसंधान का प्रदर्शन करने के उद्देश्य से संसद के अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के तौर पर स्थापित किया गया था। यह आज भी देश के बेहतरीन चिकित्सा संस्थानों में से एक है।

सोच रहा हूँ, इहलोक छोड़ने के साढ़े पांच दशक बाद पण्डित नेहरू के हिस्से क्या आया? दुष्प्रचारों के जरिये चरित्र हनन और राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान की जगह देश में जहां कहीं भी कोई कमी है उसके लिये उन्हें दोषी ठहराने का ऐसा जाल बुना गया कि अभी की 20-25 बरस वाली कच्ची अधपकी पीढ़ी के सामने उन्हें नायक की जगह खलनायक के तौर पर पेश किया जाने लगा। आज हम ‘प्रोपेगंडा संघ’ द्वारा पंडित नेहरू को लेकर फैलाये गये प्रोपेगंडा पर चर्चा करेंगे।

नेहरू के खिलाफ फैलाये जा रहे दुष्प्रचार की वजहें साफ हैं, आरएसएस भारत के स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास को बदनाम करना चाहती है। इस इतिहास के तमाम नायकों में उसके सबसे बड़े तीन दुश्मन हैं- गांधी, नेहरू और सरदार पटेल। लेकिन आरएसएस चाहकर भी गांधीजी पर सीधा हमला करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए उसकी रणनीति दोतरफा है- नेहरू की चारित्रिक हत्या कर दो और उनको सरदार पटेल का सबसे बड़ा दुश्मन बना दो।

अगर आप आज सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का यकीन करें तो नेहरू ने न सिर्फ पटेल बल्कि उनके पूरे खानदान के साथ दुश्मनी निभाई। यह जानने में किसी की दिलचस्पी नहीं है कि उनकी बेटी मणिबेन पटेल नेहरू के नेतृत्व में लड़े गए पहले और दूसरे आम चुनावों में कांग्रेस की तरफ से सांसद चुनी गयीं। मणिबेन के भाई दयाभाई पटेल को भी कांग्रेस ने तीन बार राज्यसभा भेजा था यह बात भी अनसुनी कर दी जायेगी।

अफवाहों के सांप्रदायिक प्रचार-तंत्र ने झूठ को सच बनाने का आसान रास्ता चुना है। उसने झूठ का ऐसा जाल बुना है कि आम आदमी की याददाश्त से यह बात गायब हो चुकी है कि नेहरू सच में कौन थे।

आज की नई पीढ़ी जिसकी सबसे बड़ी लाइब्रेरी इंटरनेट है, यूट्यूब वाले नेहरू को जानती है। उस नेहरू को जो औरतों का बेहद शौकीन कामुक व्यक्ति था। जिसने एडविना माउंटबेटन के प्यार में पड़कर भारत के भविष्य को अंग्रेजों के हाथों गिरवी रख दिया। यहां तक कि नेहरू की मौत इन्हीं वजहों से यानी एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिसीज) से हुई थी। इसके अलावा नेहरू सत्तालोलुप हैं। नेहरू गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने वरना सरदार पटेल आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते।

यह ऐसा आरोप है जिसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है। लेकिन आरएसएस विचारक नाम से मशहूर कई लोग हर टीवी शो में यह झूठ बार-बार दोहराते हैं। वो जिस वाकये की टेक लेकर यह अफवाह गढ़ते हैं उसमें बात पटेल के प्रधानमंत्री होने के बजाय कांग्रेस अध्यक्ष होने की थी। इस बात का प्रधानमंत्री पद से दूर-दूर का वास्ता नहीं था। 1940 के बाद 1946 तक मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने रहे क्योंकि भारत छोड़ो आंदोलन और उसकी वजह से कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित करने की वजह से चुनाव नहीं कराये जा सके। उसके बाद आचार्य कृपलानी कांग्रेस के अध्यक्ष बने और प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई ऐसा विवाद कभी हुआ ही नहीं।

आजादी के पहले और आजादी के बाद दो अलग-अलग दौर थे। पहले दौर में गांधी के व्यापक नेतृत्व में एक भरी-पूरी कांग्रेस थी। जिसमें नेहरू गांधी के बाद बिना शक नंबर दो थे। गांधी के बाद वही जनता के दिलों पर सबसे ज्यादा राज करते थे। गांधी की हत्या के बाद वो निस्संदेह कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे जिसे कई मुद्दों पर गंभीर वैचारिक मतभेद के बाद भी सरदार पटेल भी स्वीकार करते थे।

सरदार पटेल की 1950 में आकस्मिक मृत्यु के पहले तक आजाद भारत के पुनर्निर्माण के काम में लगभग सब कुछ नेहरू और पटेल का साझा प्रयास था। रियासतों के एकीकरण के काम में सरदार पटेल और वीपी मेनन की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। लेकिन भारत का एकीकरण आजादी की लड़ाई का मूल विचार था। जिस देश को पिछले सौ सालों में जोड़ा-बटोरा गया था, उसे सैकड़ों छोटी-बड़ी इकाइयों में टूटने नहीं देना था।

आजादी के बाद यह काम आजाद भारत की सरकार के जिम्मे आया। जिसे पटेल ने गृह मंत्री होने के नाते बखूबी अंजाम दिया। यहां एक वाकया गौरतलब है, भारत को सैकड़ों हिस्सों में तोड़ने वाला मसौदा ब्रिटेन भेजने के पहले माउंटबेटन ने नेहरू को दिखाया। माउंटबेटन के हिसाब से ब्रिटेन को क्राउन की सर्वोच्चता वापस ले लेनी चाहिए। यानी जितने भी राज्यों को समय-समय पर ब्रिटिश क्राउन की सर्वोच्चता स्वीकारनी पड़ी थी, इस व्यवस्था से सब स्वतंत्र हो जाते।

नेहरू यह मसौदा देखने के बाद पूरी रात सो नहीं सके। उन्होंने माउंटबेटन के नाम एक सख्त चिट्ठी लिखी। तड़के वो उनसे मिलने पहुंच गए। नेहरू की दृढ इच्छा शक्ति के आगे मजबूरन माउंटबेटन को नया मसौदा बनाना पड़ा जिसे ‘3 जून योजना’ के नाम से जाना जाता है। जिसमें भारत और पाकिस्तान दो राज्य इकाइयों की व्यवस्था दी गई थी। ध्यान रहे सरदार पटेल जिस सरकार में गृह मंत्री थे, नेहरू उसी सरकार के प्रधानमंत्री थे।

सरदार पटेल खुद बार-बार नेहरू को अपना नेता घोषित करते रहे थे। अपनी मृत्यु के समय भी उनके दिमाग में दो चीजें चल रही थीं। एक यह कि वो अपने बापू को बचा नहीं सके और दूसरी यह कि सब नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ें। जो लोग सरदार पटेल की विरासत को हड़पकर नेहरू पर निशाना साधते हैं, उन्हें सरदार पटेल और नेहरू के पत्राचार पढ़ लेने चाहिए।

नेहरू पर कीचड़ उछालना इसलिए जरूरी है कि नेहरू ने इस देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमा दीं। यह किससे छुपा है कि आरएसएस की आस्था लोकतंत्र में लेशमात्र नहीं है। खुद हमारे प्रधानमंत्री ने पद संभालने के बाद कभी कोई प्रेस कांफ्रेंस बुलाना मुनासिब नहीं समझा। ऐसे लोगों के नेहरू से डरते रहना एकदम स्वाभाविक है। क्योंकि नेहरू में अपनी आलोचना खुद करने का साहस था, सुनने की तो कहिये ही मत।

नेहरू की लोकतंत्र के प्रति निष्ठा की एक रोचक कहानी है। नेहरू हर तरफ अपनी जय-जयकार सुनकर ऊब चुके थे। उनको लगता था कि बिना मजबूत विपक्ष के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं। इसलिए नवंबर 1957 में नेहरू ने मॉडर्न टाइम्स में अपने ही खिलाफ एक ज़बर्दस्त लेख लिख दिया। चाणक्य के छद्मनाम से ‘द राष्ट्रपति’ नाम के इस लेख में उन्होंने पाठकों को नेहरू के तानाशाही रवैये के खिलाफ चेताते हुए कहा कि नेहरू को इतना मजबूत न होने दो कि वो सीजर हो जाए। मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर अपने कार्टूनों में नेहरू की खिल्ली नहीं उड़ाते थे। नेहरू ने उनसे अपील की कि उन्हें हरगिज बख्शा न जाए। फिर शंकर ने नेहरू पर जो तीखे कार्टून बनाये वो बाद में इसी नाम से प्रकाशित हुए- ‘डोंट स्पेयर मी, शंकर’।

गांधीजी की हत्या के बाद भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लंबे समय तक प्रतिबंध को नेहरू ने ठीक नहीं माना। उनका मानना था कि आजाद भारत में इन तरीकों का प्रयोग जितना कम किया जाए, उतना अच्छा। नेहरू को इस बात की बड़ी फिक्र रहती थी कि डॉ. लोहिया जीतकर संसद में जरूर पहुंचे। जबकि लोहिया हर मौके पर नेहरू पर जबरदस्त हमला बोलते रहते थे।

बात नेहरू के महिमामंडन की बात नहीं है। नेहरू की असफलताएं भी गिनाई जा सकती हैं। लेकिन उसके पहले आपको नेहरू का इस देश में महान योगदान भी स्वीकारना होगा। 70 सालों में इस देश में कुछ नहीं हुआ के नारे के पीछे असली निशाना नेहरू ही हैं। नेहरू औपनिवेशिक शोषण से खोखले हो चुके देश को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश में लगे थे। सैकड़ों चुनौतियों और सीमाओं के बीच घिरे नेहरू चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह लड़ रहे थे, जहां अंततः असफलता ही नियति थी।

एक बार गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था हमने अपनी असफलताओं से ही सही, देश की सेवा तो की। फिर भी उनकी आंखों में इस देश के सबसे गरीब-सबसे मजलूम को ऊपर उठाने का सपना था। चार घंटे सोकर भी उन्होंने इसका कभी अहसान नहीं जताया और खुली आंखों से भारत को दुनिया के नक्शे पर चमकाने की कसीदाकारी करते रहे। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डेनियल थॉर्नर कहते थे कि आजादी के बाद जितना काम पहले 21 सालों में नेहरू आदि ने किया, उतना तो 200 साल में किए गए काम के बराबर है।

मान भी लें कि नेहरू असफल नेता थे, तो भी उनकी नीयत दुरुस्त थी। आपने किसी ऐसे नेता के बारे में सुना है जो दंगाइयों की भीड़ में निडरता पूर्वक घुस जाए और दंगा रोकने के लिए पुलिस की लाठी छीनकर ख़ुद भीड़ को तितर-बितर करने लगे। या फिर जिसने हर तरह के सांप्रदायिक लोगों की गालियां और धमकियां सुनने के बावजूद हार न मानी हो। या फिर ऐसे नेता का जिसका फोन नंबर आम जनता के पास भी हो। और किसी ऐसे नेता को जानते हैं जो खुद ही फोन भी उठा लेता हो।

नेहरू ऐसे ही थे। यकीन मानिए नेहरू होना इतना आसान नहीं है। अगर आपको नेहरू के नाम की कीमत नहीं पता तो आरएसएस के दुष्प्रचार से दूर किसी अन्य देश चले जाइए। जहां लोग आपकी इज्जत इसलिए भी करेंगे कि आप गांधी के देश से हैं, आप नेहरू के देश से हैं।

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