ओवैसी फिर मंदिर मस्जिद की राजनीति भड़का कर किसे फायदा पहुंचाना चाहते हैं ?

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असदुद्दीन ओवैसी का उद्देश्य अब किसी से छुपा नहीं है। धर्म की आड़ लेकर भावनाओं से खेल रहे ओवैसी के चेहरे से सियासत की नकाब उतर चुकी है। उन्होंने फिर से उस मस्जिद के नाम से विवाद छेड़ा है जिसे भुलाकर मुसलमान आज के मुद्दों पर बात करना चाहते हैं। 

● डॉ. सुरहीता करीम

ओवैसी ने अपने चेहरे से सियासत की नकाब उतारकर कहीं दूर फेंक दी है। मजहबी मामले में उनके बोल अब धार्मिक नेताओं से दो कदम आगे हैं। कर्नाटक में बोलते हुए ओवैसी ने अयोध्या में बन रही मस्जिद को अस्वीकार्य कर दिया है। इसे हराम करार दे दिया है। अभी उन्होंने बोला भले ही कर्नाटक में है मगर उसकी आंच उत्तर प्रदेश से बंगाल तक महसूस की जा रही है। औवेसी के इस हलचल मचाने वाले बयान ने यूपी जहां बरसों बाद एक बार फिर से मुस्लिम जाट समीकरण बनते नजर आ रहे हैं वहां मुसलमानों के बीच एक अनावश्यक बहस पैदा कर दी है। 

हालांकि, मुस्लिम धर्म के अधिकांश विद्वानों ने ओवैसी के इस बयान को गलत बता इसकी निंदा की है और कहा है कि वे अपनी राजनीति करें, मजहब के मामले में टांग न अड़ाएं। लेकिन, ओवैसी ने अपना काम तो कर ही दिया है। हिंदू मुस्लिम की आग सुलगाने को माचिस की तीली तो रगड़ ही दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाते हुए विवादित जमीन हिंदू पक्ष को और इसके एवज में अयोध्या में ही दूसरी जमीन मुस्लिम पक्ष को देने का फैसला सुनाया। देश भर के मुसलमानों ने इसे स्वीकार किया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार मुसलमानों ने 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए अयोध्या में नई जगह पर मस्जिद की नींव रखी। मुसलमानों ने किसी भी विवाद से बचने के लिए मस्जिद का नाम उस गांव धन्नीपुरा पर रखने का भी फैसला किया, जहां इस मस्जिद के लिए जगह मिली है। 

मस्जिद के साथ एक ट्रस्ट बनाकर वहां 200 बेड का हास्पिटल, गरीब, निराश्रित लोगों को खाना खिलाने के लिए एक बड़ा कम्युनिटी किचन के साथ अन्य सामाजिक सेवा के काम भी करने के फैसले लिए। मगर ओवैसी तो ओवैसी ठहरे। सद्भाव और भाईचारे को हमेशा से ही अपनी राजनीति का चारा समझने वाले ओवैसी ने मस्जिद पर ही सवाल उठाकर इन सारी सद्भाव और भाइचारे की कोशिशों को विवाद में घसीटने का अक्षम्य अपराध किया है।

देश के सभी अमन पसंद लोग इस विवाद को हमेशा के लिए खत्म करना चाहते थे। इनमें मुसलमान भी है। सिर्फ अयोध्या, यूपी ही नहीं पूरे देश के मुसलमान इस विवाद को खतम करने के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे। तभी अदालत का फैसला आने के बाद किसी ने भी जुबान नहीं खोली। बेहतरीन संयम और समझदारी देखने को मिली। 

तब भी, जब राम मंदिर के लिए चंदा इकट्ठा करने मध्य प्रदेश में कुछ जगह लोग मस्जिदों के अंदर पहुंचे और मस्जिदों की मिनार पर चढ़ गए, स्थानीय मुसलमानों ने संयम बनाए रखा। साथ ही मध्य प्रदेश सहित देश भर के तमाम हिस्सों से राम मंदिर निर्माण के लिए अपनी तरफ से सहयोग राशि भी दी। सबका उद्देश्य एक ही था कि सद्भाव बना रहे और मंदिर मस्जिद विवाद खत्म हो ताकि देश प्रगति के पथ पर वापस आगे बढ़ सके। लेकिन ऐसे में ओवैसी ने एक उस बहस को छेड़ा है जिसे भूल कर मुसलमान आगे बढ़ना चाहते हैं।

ओवैसी का उद्देश्य अब किसी से छुपा नहीं है। वे धर्म की आड़ लेकर भावनाओं से खेल रहे हैं। मुसलमानों के लिए इसके भयावह नतीजे सोचने को वे शायद तैयार नहीं हैं। 

हाल ही में हैदराबाद में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में उन्होंने भाजपा को मजबूत करके जिस राजनीति की शुरुआत की है उसका विस्तार अब बंगाल में होता दिख रहा है। मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि भाजपा और ओवैसी दोनो एक दूसरे को पूरी तरह सूट कर रहे हैं। दोनों का मकसद एक है। धर्म का इस्तेमाल करके उन राजनीतिक दलो को किनारे करना, जिनका धर्मनिरपेक्ष स्वरूप है।

हैदराबाद में ओवैसी का थोड़ा असर था और भाजपा कहीं नहीं थी। मगर नगर निगम के चुनावों में क्या हुआ? दोनों की नूरा कुश्ती ने हैदराबाद में भाजपा को बड़ी बढ़त दिला कर बड़ी ताकत बना दिया। वह चार सीट से सीधे 48 पर पहुंच गई। जबकि 44 सीटों के साथ ओवैसी अपने ही गढ़ में भाजपा से पीछे हो गये। लेकिन ओवैसी को इसका गम नहीं है। यहां भाजपा ने उन्हें चैलेंज किया था तो वह ठीक वैसे ही आगे बढ़ी जैसे बिहार में औवेसी ने भाजपा को चुनौती देकर हासिल तो पांच सीट की मगर महागठबंधन को कई सीटों पर पीछे धकेल कर भाजपा-नीतीश की सरकार फिर से बनवा दी।

अब दोनों को एक दूसरे की मदद से आगे बढ़ने की राजनीति रास आने लगी है। बिहार और हैदराबाद वाला खेल अब बंगाल में खेला जाने वाला है। बंगाल में भाजपा बहुत छोटी और नई पार्टी है और असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम का वहां कोई अस्तित्व ही नहीं है। दक्षिण में कर्नाटक को छोड़ भाजपा कहीं नहीं थी। मगर औवेसी की मदद से हैदराबाद में नंबर दो की पार्टी बन जाने के बाद भाजपा के समझ में आ गया है कि औवेसी से लड़ती हुई दिखकर वह दक्षिण में और दक्षिण में ही नहीं पूरे भारत में कामयाबी की नई इबारत लिख सकती है।

ओवैसी के फैलते डैनों को देखकर यह तय है कि इसी साल होने वाले पांच राज्यों के चुनावों में वह हर जगह जाएंगे। और इसका फायदा किसको होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। 

ओवैसी की राजनीति दो तरह से काम करती है। एक- वे धर्मनिरपेक्ष दलों के वोट काटते हैं और दो- धार्मिक आधार पर भाजपा के वोटों के ध्रुवीकरण को और मजबूत करते हैं। इस काम को और तेज गति देने के लिए ही उन्होंने उस मस्जिद के नाम से विवाद छेड़ा जिसे भुलाकर मुसलमान आज के मुद्दों पर बात करना चाहते हैं। 

देश के सामने आज किसान बिल सबसे बड़ा मुद्दा है। दो माह से ज्यादा समय से किसान ऐसी कड़कड़ाती ठंड में सड़कों पर बैठा है। पूरा देश आंदोलित है। उसमें हर जाति, धर्म का किसान शामिल है। लेकिन उनकी सुनवाई होना तो दूर उन पर हमला करके उन्हें हटाने की कोशिशें हो रही हैं। 

ऐसे ही जब राकेश टिकैत को हटाने के लिए पुलिस की मौजूदगी में गाजीपुर बार्डर पर अपने लठैतों के साथ पहुंचे बीजेपी एमएलए ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया तो मीडिया के सामने टिकैत अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और उस वक्त उनकी आंख से टपके आंसू पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सैलाब बन गए। धरना स्थल से घर लौट चुके किसान वापस आने लगे। मुज्जफरनगर और मथुरा में बड़ी किसान महा पंचायते हुईं।

मुज्जफरनगर की पंचायत में महेन्द्र सिंह टिकैत के बड़े बेटे नरेश टिकैत के साथ जयंत चौधरी और चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत के साथी रहे गुलाम मोहम्मद जौला भी थे। जौला ने मंच से कहा,

जाटों ने दो बड़ी गलतियां की हैं। एक मुसलमानों को मारा दूसरा अजीत सिंह को चुनाव हरवाया। इसी का परिणाम है कि आज महेन्द्र सिंह टिकैत के लड़के नरेश टिकैत को धमकाया जा रहा है। और वह रो रहे हैं। 

जौला के 2013 के मुज्जफरनगर दंगे का दुःख व्यक्त करने के बाद नरेश टिकैत ने उन्हें गले लगा लिया और जयंत ने पांव छू लिए। इसके बाद माहौल पूरी तरह बदल गया और जाट और मुस्लिम के साथ आने की बात फिर से होने लगी। सबने आंदोलन को मजबूत करने और फिर वापस समाजिक सद्भाव बनाने की बात कही।

कुछ लोग दोस्ती की इस वापसी से परेशान हैं। वे मुसलमानों को बार बार मुज्जफरनगर दंगे की याद दिला रहे हैं। मुसलमानों का बड़ा हिस्सा इन कड़वी यादों को भुलाकर नई शुरुआत करना चाहता है। वह न मस्जिद विवाद में फंसना चाहता है और न ही दंगों के पुराने जख्मों को कुरेदना। यही सकारात्मकता है। 

लेकिन नकारात्मक और ध्रुवीकरण की राजनीति करने वालों को यह सद्भाव और भाइचारे की सोच रास नहीं आ रही है। मगर यह कोई नई या अजूबा बात नहीं है। यह जंग हमेशा हुई है। प्रेम और नफरत में। अमन का पैगाम बोने वालों में और नफरत की खेती करने वालों में। शांति चाहने वालों और तनाव बढ़ाने की कोशिश में लगे रहने वालों के बीच। इसी को सत्य और असत्य की लड़ाई भी कहते हैं। धर्म और अधर्म का युद्ध भी यही है। और अंत में कौन जीतता है यह भी सब को मालूम है!

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