धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव ‘धीरु भाई’ की कविताओं में किसान आंदोलन

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(1)

‘लोकतंत्र मरने मत देना’

हे रे भाई, हे रे साथी।
पुरखों से हासिल आज़ादी।
लोकतंत्र की जलती बाती।
यह बाती बुझने मत देना।
लोकतंत्र मरने मत देना।

सिक्कों के झनकारों में फंस।
ओहदों और अनारों में फंस।
जात धर्म के नारों में फंस।
खेती को जलने मत देना।
लोकतंत्र मरने मत देना।

जंगल नदी पहाड़ व पानी।
उजली धोती साड़ी धानी।
आम आदमी और किसानी।
का माथा झुकने मत देना।
लोकतंत्र मरने मत देना।

चिकनी चुपड़ी सौगातों में।
उकसाने वाले झांसों में।
ईस्ट इंडिया जस हाथों में,
देश पुनः फंसने मत देना।
लोकतंत्र मरने मत देना।

इस धरती से अपना नाता।
हम बेटें हैं वह है माता।
अपना दाता एक विधाता।
दाता नव बनने मत देना।
लोकतंत्र मरने मत देना।

(2)

बाबा खोलो आंख

बापू लाखों हाथ खड़े हैं हाथ जोड़कर।
हीरा मोती आज खड़े है हाथ जोड़कर।

ईस्ट इंडिया नई से जान बचाने को,
दाता बने अनाथ खड़े हैं हाथ जोड़कर।

बाबा खोलो आंख लखो दिल्ली की सीमा,
माथ झुकाकर माथ खड़े हैं हाथ जोड़कर।

अपनी खेती औ बागों की  रखवाली को,
किर्तन भजन व नात खड़े है हाथ जोड़कर।

मजहब नहीं इजाजत देता फिर भी सफ में,
कदम मिला इरशाद खड़े हैं हाथ जोड़कर।

बांध कफ़न सर पर धरती के लाल हजारों,
खुद टिकैत के ताज खड़े हैं हाथ जोड़कर।

कृषि के कानूनों को वापस ले लो साहब,
देखो सब प्रह्लाद खड़े हैं हाथ जोड़कर।

(3)

जब सोचोगे तेरे कारण खेत बगीचा हार गया

राजा बड़ा हिरणकश्यप था पर जब हद से पार गया।
उसको सब कुछ देने वाला दाता ही संहार गया।

रहे पुत्र सौ लेकिन कोई महासमर में नहीं बचा,
एक भगीरथ अपने श्रम से पुरखों को भी तार गया।

यह नफरत और अहंकार भी वैसे जग से जाएगा,
जैसे गया सिकन्दर जग से जैसे हिटलर जार गया।

और इधर देखों बापू के चरणों में वे सर भी हैं,
जिनके पुरखे जिनका पुरखा खुद बापू को मार गया।

ईस्ट इंडिया नव के मित्रों तुम भी तब पछताओगे,
जब सोचोगे तेरे कारण खेत बगीचा हार गया।

जो नेमत पाकर बौराया जिसने अत्याचार किया,
तवारीख के पन्नों में वह पातालों के पार गया।

तलवारों के बल पर जो भी पाने को संसार चला,
मैंने देखा है उस हाथों से पूरा संसार गया।

(4)

कृपा करो

श्रेष्ठ अडानी जी के बेटों, कृपा करो।
हे अम्बानी जी के पोतों, कृपा करों।

अपने देश के कृषकों पर, जो सड़कों पर हैं।
अन्न दाता के बेटों पर, जो सड़कों पर हैं।
भूख से लड़ते लड़कों पर, जो सड़कों पर हैं।
महिलाओं और बच्चों पर जो सड़कों पर हैं।
हे केवल पूँजी के लोगों, कृपा करो।
श्रेष्ठ अडानी जी के बेटों, कृपा करो।
हे अम्बानी जी के पोतों, कृपा करो।

जो फसलों की कीमत अच्छा, मांग रहे हैं।
अपने श्रम का वाजिब हिस्सा, मांग रहे हैं।
बच्चों को कपड़ा और शिक्षा, मांग रहे हैं।
अपने खेत बाग की रक्षा, मांग रहे हैं।
उन पर हे नफरत के सेठों, कृपा करो।
श्रेष्ठ अडानी जी के बेटों, कृपा करो।
हे अम्बानी जी के पोतों, कृपा करो।

देश विरोधी कहकर जिनको, टोक रहे हो।
सड़क पे गड्ढा खोदके जिनको, रोक रहे हो।
पानी की बौछारें जिन पर, झोंक रहे हो।
जिनके पेट में हर दिन छूरा, भोंक रहे हो।
उन पर हे छूरा के नोकों, कृपा करो।
श्रेष्ठ अडानी जी के बेटों, कृपा करो।
हे अम्बानी जी के पोतों, कृपा करो।

भूख के घर में ढोल तमाशा, ठीक नहीं है।
लाठी गोली वाली भाषा, ठीक नहीं है।
रोज रोज जुमलों का बाजा, ठीक नहीं है।
बोल रही है जनता राजा, ठीक नहीं है।
अब से ही कुछ अच्छा सोचो, कृपा करो।
श्रेष्ठ अडानी जी के बेटों, कृपा करो।
हे अम्बानी जी के पोतों, कृपा करो।

(5)

झंडा लेकर तुम भी निकलो

ट्रेक्टर लेकर वह निकला है, फरुहा लेकर तुम भी निकलो।
कंगन वाले हाथ में हँसिया, खुरपा लेकर तुम भी निकलो।

जगो सरस्वती मां के पुत्रों, खतरे में है देव अन्न का,
उसे बचाने का व्रत लेकर, बस्ता लेकर तुम भी निकलो।

छोड़ के डर मजदूरों निकलो, एक साथ मजबूरों निकलो,
ढोल नगाड़ा पीटने वालों, थरिया लेकर तुम भी निकलो।

मुर्गी मुर्गा पालने वालों, बकरी भेड़ चराने वालों,
मान कृषक को अपना भाई, गमछा लेकर तुम भी निकलो।

शीत हवा या जुलुम से थककर, जो सड़कों पर खेत हो गए,
उन्हें वहीं कन्धा देने को, कन्धा लेकर तुम भी निकलो।

कसम है तुमको लोकतंत्र की, लोकतंत्र के सभी पहरुओं,
कृषकों की रक्षा का दल से, वादा लेकर तुम भी निकलो।

पूँजीवाद के खूनी कर से, खेती बाग बचाने खातिर, 
कलम चलाने वाले मित्रों, झंडा लेकर तुम भी निकलो।

(1)

दिल्ली के चहुँ ओर लखि,
कृषकों का उल्लास।

सोच रही है शीत में,
लोकतंत्र की आस।

जल्द ही उगेगा सूरज।
बराबर बंटेगा सूरज।

(2)

जल्दी में उल्टा पड़ा,
लाठी का अभियान।

गाज़ीपुर की सड़क पर, 
लौटा पुनः किसान।

बोलकर माटी की जय।
बोलकर लाठी की क्षय।

(3)

एक तरफ सम्राट के,
जुमलों की तकरीर।

दूजी तनी किसान पर,
डन्डे की तस्वीर।

राम यह दृश्य बदल दो।
राम यह कृत्य बदल दो।

(4)

साहब सूबा सेठ जी,
या उनके दरबान।

रह जाएगा यहीं पर,
धनबल और गुमान।

इसे पा खेत न लूटो।
हमारा देश न लूटो।

(5)

दिखने में तो लग रहा,
हूँ किसान के साथ।

लेकिन सच में खड़ा हूँ,
हिन्दुस्तान के साथ।

बोलकर जय दाता की।
जय हो अन्न दाता की।

(6)

कहाँ कहें किससे कहें,
भारी दिन पर ओस।

रायबहादुर आज के,
रहे कृषक को कोस।

शब्द का दही बनाकर।
झूठ को सही बताकर।

(7)

जहां कहीं हैं कीजिए,
दोनों जून गुहार।

हे मालिक उनपर करो,
ताबड़तोड़ प्रहार।

जो दुश्मन हैं किसान के।
देश के स्वाभिमान के।

(8)

एक तरफ सब कृषक हैं,
एक तरफ दो सेठ।

सेवक फंसे हैं द्वंद में,
फूल रहा है पेट।

पचाना भी है मुश्किल।
उगलना भी है मुश्किल।

(9)

रोज रोज चढ़ कस रही,
पूंजी अपनी फांस।

फंसी गले के बीच है,
लोकतंत्र की सांस।

लड़ रहा बढ़ किसान है।
सो रहा नवजवान है।

(10)

हाँफ रहा है जगत में,
लोकतंत्र का पम्प।

जैसे वहाँ के डम्प हैं,
वैसे यहाँ के जम्प।

बजाकर ताली थाली।
लूटते केवल लाली।

(धीरेन्द्र नाथ श्रीवास्तव वरिष्ठ जनधर्मी पत्रकार हैं। कई बड़े हिंदी अखब़ारों में उच्च पदों पर सेवा दे चुके हैं और ‘राष्ट्रपुरुष चन्द्रशेखर संसद में दो टूक’, ‘लोकबंधु राजनारायण विचार पथ- एक’ व ‘अभी उम्मीद ज़िन्दा है’ पुस्तकों के संपादक हैं। सम्प्रति लखनऊ में रहकर स्वतंत्र लेखन व जनमुद्दों पर निरंतर सक्रिय हैं।)

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