संविधान में ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ लिखने के मायने और उसपर मड़राता खतरा!
जब कोई कहता है कि डॉ.आंबेडकर संविधान में पंथनिरपेक्षता जोड़ने के ख़िलाफ़ थे तो यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि तो क्या वे बीजेपी और आरएसएस की तरह तरह हिंदू राष्ट्र चाहते थे? दिलचस्प बात यह है कि इस मामले मे डॉ.आंबेडकर और नेहरू के लगभग समान विचार थे। नेहरू जहां हिंदू राष्ट्र का मतलब ‘आधुनिक सोच को पीछे छोड़ना, संकीर्ण होकर पुराने तरीके से सोचना और भारत को टुकड़ों में बाँटना’ मानते हैं वहीं डॉ.आंबेडकर हिंदू राज की स्थापना को देश के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य मानते हुए इसे स्वतंत्रता, समानता और मैत्री के लिए ख़तरा और लोकतंत्र के लिए विपत्ति कहते हैं।
● पंकज श्रीवास्तव
संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द जोड़कर भारतीय राज्य की विशिष्ट पहचान स्पष्ट की गयी थी। संविधान को ये विशिष्ट पहचान 42वें संशोधन के जरिए मिली। साल 1976 में लाया गया 42वां संविधान संशोधन 3 जनवरी 1977 को लागू हुआ था। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार इन दोनों शब्दों को संविधान से हटवाने का कुचक्र रच रही है। यह भी कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट में दायर कई याचिकाएँ दरअसल इसी साज़िश का हिस्सा हैं।
इन दोनों शब्दों के बिना आधुनिक भारत की कल्पना का कोई अर्थ नहीं है। ये दोनों शब्द स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्पों में गुत्थी रहे हैं जिसने इस विविधितापूर्ण महादेश को एकजुट करने में अहम भूमिका निभायी थी। इंदिरा गाँधी की आपात्काल लगाने पर जिनती भी आलोचना की जाये, किंतु इन दोनों शब्दों पर उनका ज़ोर बताता है कि उन्होंने उस ख़तरे को अच्छी तरह समझ लिया था जो संपूर्णक्रांति आंदोलन की नाँव पर सवार हुए आरएसएस के नागरिक जीवन में प्रतिष्ठित होने में छिपा था। इस संगठन ने अपने जन्मकाल से ही इन दोनों विचारों का विरोध किया था।
ज़मींदारी उन्मूलन से लेकर प्रीवीपर्स ख़त्म करने का विरोध करके आरएसएस और उसके अनुशांगिक संगठनों ने संसाधनों पर सामंतों का क़ब्ज़ा बरक़रार रखने की खुली वक़ालत की थी और पंथनिरपेक्षता की अवधारणा तो उसके हिंदू राष्ट्र बनाने के प्रोजेक्ट के लिए दूध में नींबू निचोड़ने जैसा था।
ग़ौर करने की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक से ज़्यादा बार पंथनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बताया है जिसे बहुमत के दम पर कोई सरकार बदल नहीं सकती। इसके बावजूद बीजेपी के तमाम नेता इस शब्द को संविधान से हटाने की पुरज़ोर वक़ालत करते रहते हैं। हद तो ये है कि वे इसके लिए डॉ.आंबेडकर का सहारा लेते हुए कहते हैं कि उन्होंने समाजवाद और सेक्युलर शब्द को प्रस्तावना में जोड़ने के प्रस्ताव का संविधान सभा में विरोध किया था। यह किसी क्लर्क की निगाह ही हो सकती है जो सारे संदर्भ को त्यागकर काग़ज़ तैयार करने के लिए मक्खी की जगह मक्खी बैठाने पर जुटा रहता है।
सच ये है कि ‘सेक्युलरिज़्म’ और ‘समाजवाद’ स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिए गये संकल्प थे जो संविधान की भावना में अंतर्निहित है। पहले बात समाजवाद की। डा.आंबेडकर ने इस शब्द को जोड़ने के ख़िलाफ़ यह तर्क दिया था कि संविधान सभा का बहुमत समाजवाद के पक्ष में भले हो लेकिन भविष्य की पीढ़ियों को किसी आर्थिक दर्शन से बाँध देना उचित नहीं है। यानी वे मानते थे कि भविष्य में समाजवाद से बेहतर कोई आर्थिक दर्शन आ सकता है, वरना ख़ुद उन्होंने राजकीय समाजवाद की वक़ालत की थी। वे भूमि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे जो सीधे-सीधे समाजवाद की ही घोषणा थी। उन्होंने समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे फ्रांसीसी क्रांति से निकले महान विचार को भारतीय संविधान का मूल आधार बनाया था। भारत के कल्याणकारी राज्य होने की अवधारणा के पीछे यही विचार काम करता रहा है।
यही नहीं, संविधान सभा का सदस्य बनने से पहले डा.आंबेडकर ने एक प्रतिवेदन उसके सामने रखा था जिसमें साफ़ कहा था कि –
”संविधान में मैं कुछ ऐसे प्रावधानों को रखना चाहूंगा, जो वास्तव में भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करेंगे। इस दृष्टि से यह तभी सम्भव होगा, जब देश में उद्योग और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा। मैं नहीं समझता कि किसी भी भावी सरकार के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को समाजवादी बनाए बगैर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय में विश्वास करना सम्भव हो सकता है!”
ऐसे में समाजवाद के विरुद्ध बीजेपी नेताओं की चिंघाड़ दरअसल, क्रोनी कैपटलिज़्म की राह में खड़ी तमाम बाधाओं को दूर करने के अलावा कुछ नहीं। जिस तरह से नवरत्न कहे जाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने का बेशर्म सिलसिला जारी है, उसने यह बात और साफ़ की है। दुनिया का सबसे अनोखा किसान आंदोलन आज अगर दिल्ली की सरहदों पर लाखों हाथों से दस्तक दे रहा है तो यह देश की कृषि व्यवस्था को चंद औद्योगिक घरानों के हाथ बेचने की मोदी सरकार की कोशिश का प्रतिवाद ही है।
‘समाजवाद’ का विरोध दरअस्ल, भारत को उसी दौर में ले जाने की कोशिश है जब न नागरिक थे न नागरिक बोध। जनता और शासक के बीच महज़ राजा और प्रजा का रिश्ता था। यह लोकतंत्र से राजतंत्र की ओर लुढ़कने जैसा है।
अब बात पंथ निरपेक्षता की। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित इस शब्द का अर्थ है कि भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। उसका अपना कोई धार्मिक पंथ नही होगा तथा देश में सभी नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न ही किसी धार्मिक पंथ का विरोध करेगी। 1973 में केशवानंद भारती के केस में मुख्य न्यायाधीश एस.एम.सीकरी की अध्यक्षता वाले 13 जजों की पीठ ने कहा था कि संसद को संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। कोई भी संशोधन संविधान की मूल भावना को उलट नहीं सकता। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने एसआर बोम्माई बनाम भारतीय गणराज्य (1994) मामले में स्पष्ट तौर पर धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान के मूलभूत बनावट का हिस्सा माना था।
जो लोग ये कहते हैं कि ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्द इंदिरा गाँधी ने अपनी सनक की वजह से 42वें संशोधन के ज़रिये संविधान में जोड़ा उन्हें जानना चाहिए कि पूरा संविधान ही ‘पंथनिरपेक्षता’ की भावना से ओतप्रोत है। धारा 14 क़ानून की नज़र में सबको एक समान बताती है तो धारा 15 धर्म, जाति, नस्ल लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव पर पाबंदी लगाती है और धारा 16 कहती है कि सार्वजनिक रोज़गार के क्षेत्र में सबको एक समान मौक़े मुहैया कराये जायेंगे। संविधान, धर्म, पूजा पद्धतियों और विचारों को लेकर पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार देता है। यही वजह है कि पंथनिरपेक्षता को अलग से लिखने की ज़रूरत शुरुआत में महसूस नहीं की गयी थी। लेकिन इंदिरा गाँधी ने इस पर मंडराते ख़तरे को देखते हुए आपात्काल में इसे संविधान में जोड़ा ताकि अतिरिक्त ज़ोर दिया जा सके।
यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि,
भारत की विभिन्न सरकारें, धर्म और राज्य के बीच सुचिंतित दूरी बनाये रखने में असफल साबित हुई हैं। उन्होंने इसका अर्थ ‘सर्वधर्म समभाव’ लगाया जो व्यक्ति के लिए तो वांछित है पर सरकार जब ऐसा करती है तो फिर बहुमत की ओर उसका झुकना स्वाभाविक हो जाता है। वास्तविक ‘पंथनिरपेक्ष राज्य’, मध्ययुगीन या प्राचीन बर्बरता से भारत को आधुनिक दौर में ले जाने की कसौटी है।
बहरहाल, जब बीजेपी नेता कहते हैं कि डॉ.आंबेडकर संविधान में पंथनिरपेक्षता जोड़ने के ख़िलाफ़ थे तो यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि तो क्या वे बीजेपी और आरएसएस की तरह का हिंदू राष्ट्र चाहते थे? दिलचस्प बात यह है कि इस मामले मे डॉ.आंबेडकर और नेहरू के लगभग समान विचार थे। नेहरू ने कहा था- “हिंदू राष्ट्र का केवल एक ही मतलब है, आधुनिक सोच को पीछे छोड़ना, संकीर्ण होकर पुराने तरीके से सोचना और भारत का टुकड़ों में बाँटना।”
और डॉ.आंबेडकर ने कहा था – ”यदि हिंदू राज की स्थापना सच में हो जाती है तो नि:संदेह यह इस देश के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। चाहे हिंदू कुछ भी कहें, हिंदू धर्म, स्वतंत्रता, समानता और मैत्री के लिए एक ख़तरा है। यह लोकतंत्र के लिए विपत्ति है। किसी भी क़ीमत पर हिंदू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए।”(डॉ. आंबेडकर, थॉट्स ऑन पाकिस्तान)