अस्सी बरस पहले ही सुभाषचंद्र बोस ने कहा था- ‘भगवा दिखा कर वोट बटोरने वाले ग़द्दारों को निकाल फेंकें’

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‘हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।’  

 सुभाषचंद्र बोस

● आलोक शुक्ल 

नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती दो दिन पहले देश भर में खुब धूम धाम से मनाई गई। कोलकाता में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने हिस्सा लिया।राजनीति में ‘एक परिवार’ पर हमले के फेर में रात-दिन रहने वाले मोदीजी को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी बातें इतिहाससम्मत हैं या नहीं। वे कई बार कहते हैं कि अगर देश को पटेल और सुभाष जैसी विभूतियों का मार्गदर्शन मिला होता तो देश कहाँ से कहाँ होता!। ऐसा कहते हुए उनके निशाने पर स्पष्टत: पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू होते हैं।

पूरा आरएसएस और भाजपा यह मानते हुए कि लोग मूर्ख हैं और वे वास्तविकता का पता नहीं करेंगे, दशकों से ऐसा ही विमर्श गढ़ने में जुटे है कि सुभाष चंद्र बोस की गांधी और नेहरु से वैचारिक दूरी थी और सुभाष चंद्र बोस दक्षिणपंथ के नजदीक थे। लेकिन ज़रा सी कोशिश से यह बात जानी जा सकती है बोस दक्षिणपंथ नहीं, बल्कि कांग्रेस में समाजवाद का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

बहरहाल, जब भारत के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने वाला कोई राजनेता सुभाषचंद्र बोस जैसे महान नेता को लेकर भ्रम फैलाए तो निर्भय होकर कुछ तथ्य रखना ज़रूरी हो जाता है ताकि लोकतंत्र का कोई अर्थ बचा रहे। तथ्य सिर्फ़ यही नहीं हैं कि नेहरू और सुभाष दरअसल काँग्रेस में समाजवादी दल के ही नेता थे, या कि 1938 में काँग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने योजना आयोग (जिसे मोदी सरकार ने भंग कर दिया) गठित करके नेहरू को उसका अध्यक्ष बनाया था, या कि आज़ाद हिंद फ़ौज में सुभाष ने गाँधी और आज़ाद के अलावा नेहरू ब्रिगेड गठित की थी या सुभाष के लापता हो जाने के बाद नेहरू उनकी बेटी के लिए हर महीने आर्थिक सहायता भिजवाते रहे, या कि आज़ाद हिंद के फ़ौजियों के बचाव के लिए उन्होंने काला कोट पहनकर लाल किले में मुकदमा लड़ा था, बल्कि यह बताना भी है कि मोदी जिस सावरकर वाली हिंदू महासभा और गोलवलकर की आरएसएस की विरासत थामे हैं, सुभाष बोस उससे नफ़रत करते थे। उसे पनपने के पहले उखाड़कर फेंक देना चाहते थे। यह ऐतिहासिक सच है कि यदि सुभाष होते तो न आरएसएस होता, न मोदी।

हिंदू महासभा को एक कट्टर सांप्रदायिक मोड़ देने वाले सावरकर 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने। अंग्रेज़ों से सहकार और काँग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का तीखा विरोध उनकी नीति थी। यह वह समय़ था जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य, काँग्रेस के भी सदस्य हो सकते थे। कई तो पदाधिकारी तक बनते थे।

सुभाषचंद्र बोस ने काँग्रेस के अध्यक्ष बनने पर इस ख़तरे को महसूस किया और 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव पारित करके काँग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों को काँग्रेस की निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी गई।

सुभाषचंद्र बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया था जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। उन्होंने कहा-
‘हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।’

दरअसल, धार्मिक आधार पर राजनीति करना सुभाष बोस की नज़र में ‘राष्ट्र के साथ द्रोह’ था। 24 फरवरी 1940 के फार्वर्ड ब्लाक में हस्ताक्षरित संपादकीय में उन्होंने कहा- ‘सांप्रदायिकता तभी मिटेगी, जब सांप्रदायिक मनोवृत्ति मिटेगी। इसलिए सांप्रदायिकता समाप्त करना उन सभी भारतीयों-मुसलमानों, सिखों, हिंदुओं, ईसाइयों आदि का काम है जो सांप्रदायिक दृष्टिकोण से ऊपर उठ गए हैं और जिन्होंने असली राष्ट्रवादी मनोवृत्ति विकसित कर ली है, जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए युद्ध करते हैं, निस्संदेह उनकी मनोवृत्ति असली राष्ट्रवादी होती है।’

(पेज नंबर 87, नेताजी संपूर्ण वाङ्मय, खंड 10) 

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