किसान-सरकार वार्ता : क्या बात बनने के बजाय और बिगड़ गई?
● आदित्य मेनन
नरेंद्र मोदी सरकार और किसान यूनियनों के बीच 4 जनवरी को हुई सातवें दौर की बातचीत भी पिछले छह दौर की ही तरह बेनतीजा रही। इस बार की बैठक में भी किसानों और सरकार के बीच तीन कृषि कानूनों को खत्म करने को लेकर गतिरोध बना रहा। अब अगले दौर की बातचीत 8 जनवरी को होनी बताई जा रही है। हालांकि, अभी इस पर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं।
बैठक में क्या हुआ?
बैैैठक की शुरुआत में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, पीयूष गोयल और सोम प्रकाश ने किसान यूनियन नेताओं के साथ किसान आंदोलन के दौरान जान गवांने वाले किसानों की याद में दो मिनट का मौन रखा।
इसके बाद शुरू हुए लंच से पहले के सत्र में बातचीत के आरंभ से ही सरकार ने कानूनों में बदलाव पर बातचीत करने पर जोर दिया, न कि इन्हें वापस लेने पर। जबकि, किसानों की मुख्य मांग तीनों कानूनों को वापस लेने की है। केंद्रीय मंत्री मुख्य तौर पर शुरु से ही किसान नेताओं को समझाने की कोशिश करते रहे कि तीनों कानूनों में क्या बदलाव हो सकते हैं।
उस सत्र के दौरान, मंत्रियों ने दावा किया कि देशभर के किसान कृषि कानूनों को समर्थन दे रहे हैं। इस दावे का किसान प्रतिनिधियों ने विरोध किया।
मंत्रियोंं के रुख से जब ये साफ हो गया कि सरकार का तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने पर बातचीत का कोई इरादा नहीं है तो किसान प्रतिनिधि अशांत हो गए।
भारतीय किसान यूनियन (उग्राहन) प्रमुख जोगिंदर सिंह उग्राहन ने कथित तौर पर कहा कि वो सरकार की तरफ से प्रस्तावित क्लॉज- बाई- क्लॉज बातचीत के लिए तैयार नहीं हैं।
एक भरोसेेमन्द सूत्र के मुताबिक, उग्राहन ने कहा, “हम यहां गोल गोल घूमने नहीं आए हैं।”
यूनियनों ने जोर दिया कि सरकार तीनों कानूनों को वापस लेने के तौर- तरीकों पर बातचीत करे, जबकि सरकार MSP पर बातचीत चाहती थी।
यूनियन के कुछ प्रतिनिधियों ने बातचीत जारी रखने से इनकार कर दिया जब तक कि कानून वापस लेना एजेंडा का हिस्सा नहीं बन जाता। जब गोयल और तोमर एक फोन कॉल के लिए बाहर गए, तो पंजाब से आने वाले केंद्रीय MoS कॉमर्स सोम प्रकाश को किसानों को बैठक में आने के लिए मनाना पड़ा।
किसान प्रतिनिधि वापस कांफ्रेंस रूम में आए लेकिन उन्होंने ‘शांत रहने’ का फैसला किया। इसके थोड़ी देर बाद बैठक खत्म हो गई और MSP के मुद्दे पर बातचीत नहीं हुई। यूनियनों ने कहा कि अगर मंडियां ही नहीं रहेंगी तो MSP पर बातचीत करने का कोई मतलब नहीं है।
गतिरोध के पीछे की कहानी
छठे दौर की बातचीत में सरकार ने कहा था कि वो किसानों को बिजली कानून और पराली जलाने के मामले से बाहर रखेंगे। लेकिन इस बार सरकार कम ‘दोस्ताना’ मूड में दिखी और तीनों कानूनों को वापस लेने पर बातचीत करने तक से इनकार हुआ। हालांकि, ये उम्मीद से परे नहीं था।
पिछली बैठक में मंत्रियों ने भी दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमेटी की तरफ से किसानों के लिए लाए गए लंगर में हिस्सा लिया था। इस बार ऐसा नहीं हुआ। 4 जनवरी को किसानों ने जमीन पर बैठकर लंगर खाया, जबकि सरकारी प्रतिनिधियों ने अपना लंच अलग किया।
इसके अलावा बैठक से पहले सरकार की तरफ से नरमी दिखाने का कोई सार्वजानिक ऐलान नहीं हुआ था, जैसे कि छठे दौर की बातचीत से पहले राजनाथ सिंह और सोम प्रकाश के बयानों से हुआ था।
सरकार और किसानों के विचारों में एक मूल अंतर है। सरकार का स्पष्ट मत है कि तीन कानूनों की जरूरत है। वह एग्रीकल्चर सेक्टर में कुछ कॉर्पोरेट्स के बढ़ते प्रभाव को बुरा नहीं मानती है। इसलिए, भारतीय कॉर्पोरेट्स को बढ़ावा देना और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए उनके पक्ष में माहौल बनाना देश हित में मानती है।
दूसरी तरफ, किसान तीनों कानूनों को उनकी आजीविका के लिए खतरा मानते हैं। किसान कहते हैं कि ग्रीन रिवॉल्यूशन के दौरान उन्होंने अपनी खेती की स्थिरता से समझौता किया, जिससे कि देश की खाद्य सुरक्षा की जरूरत पूरी हो सके। इसलिए सरकार का अब समर्थन वापस लेना और उन्हें कॉर्पोरेट हितों के लिए कमजोर बना देना धोखे के तौर पर देखा जा रहा है। यही अंतर गतिरोध की जड़ है।
अब आगे क्या होगा ?
किसान अब 5 जनवरी को मिलकर आगे की रणनीति तय कर सकते हैं। 8 जनवरी की बैठक में उनके हिस्सा लेना अभी पक्का नहीं है और इस पर भी 5 जनवरी की बैठक में फैसला होगा। जहां तक संभावना है, यूनियन आंदोलन तेज कर सकती हैं।
एक हल ये निकल सकता है कि सरकार तीनों कृषि कानूनों को एक तय समय के लिए रोकने पर राजी हो जाए और एक कमेटी बनाई जाए जो नए कानून ड्राफ्ट करे। इन कानूनों में किसानों की चिंता का भी हल हो और सरकार के सुधार भी लागू हो जाएं।
इस बीच, किसान आंदोलन का सामना कर रही पंजाब बीजेपी के 5 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने एक डेलिगेशन भेजने की उम्मीद है।
हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की बीजेपी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार दिल्ली की तरफ किसानों की और मूवमेंट रोकने के लिए सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर सकते हैं। 26 जनवरी को किसानों के दिल्ली में मार्च को लेकर ये व्यवस्था होने के आसार ज्यादा हैं।
साभार ‘द क्विंट’