बापू के दौर में भी जिंदा थे अर्नब और दीपक

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बापू एक संपादक भी रहे। 35 साल की उम्र में उन्होंने इंडिया ओपिनियन का सम्पादन संभाला। गांधी जी के वक्त ट्विटर नही था फेसबुक नही था लेकिन अर्नब, दीपक अंजना मौजूद थे। इनको लेकर यंग इंडिया में गांधी ने एक लेख लिखा। आप इस लेख के एक हिस्से को पढ़िए, आपको अर्नब, दीपक ठहाके लगाते नजर आएंगे, लेकिन गांधी की ताकत उन पर भारी पड़ती दिखाई देगी। पढ़िए यह हिस्सा गांधी बाबा का लिखा-

• आवेश तिवारी 

“अख़बारों की नफरत पैदा करनेवाली बातों से भरी हुई कुछ कतरनें मेरे सामने पड़ी हैं। इनमें सांप्रदायिक उत्तेजना, सफेद झूठ और खून-खराबे के लिए उकसानेवाली राजनीतिक हिंसा के लिए प्रेरित करनेवाली बातें हैं। निस्संदेह सरकार के लिए मुकदमे चलाना या दमनकारी अध्यादेश जारी करना बिल्कुल आसान है। पर ये उपाय ऐसे लेखकों का हृदय-परिवर्तन तो कतई नहीं करते, क्योंकि जब उनके हाथ में अख़बार जैसा प्रकट माध्यम नहीं रह जाता, तो वे अक्सर गुप्त रूप से प्रचार का सहारा लेते हैं।’

इसका वास्तविक इलाज तो वह स्वस्थ लोकमत है, जो विषैले समाचार-पत्रों को प्रश्रय देने से इनकार करता है। हमारे यहां पत्रकार संघ है। वह एक ऐसा विभाग क्यों न खोले, जिसका काम विभिन्न समाचार-पत्रों को देखना और आपत्तिजनक लेख मिलनेपर उन पत्रों के संपादकों का ध्यान उस ओर दिलाना हो? दोषी समाचार-पत्रों के साथ संपर्क स्थापित करना और जहां ऐसे संपर्क से इच्छित सुधार न हो, वहां उन आपत्तिजनक लेखों की प्रकट आलोचना करना ही इस विभाग का काम होगा। 

अख़बारों की स्वतंत्रता एक बहुमूल्य अधिकार है और कोई भी देश इस अधिकार को छोड़ नहीं सकता। लेकिन यदि इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने की कोई सख्त कानूनी व्यवस्था न हो, केवल बहुत नरम किस्म की कानूनी व्यवस्था हो, जैसा कि उचित भी है, तो भी मैंने जैसा सुझाया है, रोकथाम की एक आंतरिक व्यवस्था करना असंभव नहीं होना चाहिए और उसपर लोगों को नाराज भी नहीं होना चाहिए।’

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