क्या यूपी का नया विशेष सुरक्षा बल नाजी जर्मनी का ‘गेस्टापो’ या ब्रिटिश भारत का ‘रौलट एक्ट’ है!
यूपी सरकार ने नये विशेष सुरक्षा बल (Special Security Force) का गठन किया है जिसमें बिना किसी वॉरंट के किसी के घर पर पुलिस छापा मार सकती है किसी को गिरफ्तार कर सकती है और इस विशेष बल के किसी कार्रवाई के विरुद्ध कोई भी बिना सरकार की इजाज़त के अदालत में भी नहीं जा सकता। क्या ये कानून एक सदी पहले बरतानिया हुकूमत द्वारा भारत में लाये गए दमनकारी रौलट एक्ट और नाजी जर्मनी में विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए स्थापित सीक्रेट पुलिस ‘गेस्टापो’ की पुनरावृत्ति है ? देश के मौजूदा हालात और सरकार की कार्य प्रणाली देखने के बाद ये सवाल ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है।
- आलोक शुक्ल
वर्ष 1919 में बरतानिया हुकूमत ने भारत में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने के लिए ‘द एनार्किकल एंड रिवोल्यूशनरी क्राइम एक्ट ऑफ 1919’ नामक एक ऐसा कानून बनाया जिसके तहत किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए उसे जेल में बंद किया जा सकता था। इस क़ानून के तहत आरोपी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था। कानून के तहत राजद्रोह के मुकदमे की सुनवाई विशेष न्यायालय में होती, जहां जज बिना जूरी की सहायता के सुनवाई करते और फैसले के बाद किसी उच्च न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती थी। सरकार बलपूर्वक प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार छीन सकती थी और अपनी इच्छा अनुसार किसी व्यक्ति को कारावास या देश से निष्कासन का दंड दे सकती थी। वास्तव में इस कानून के द्वारा ब्रिटिश सरकार भारतीयों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समाप्त करके उन्हें किसी भी तरह के राजनैतिक आंदोलनों में हिस्सा लेने से रोकना चाहती थी। पर क्या हुआ? भारतीयों ने पूरी ताकत से रौलट एक्ट के नाम से मशहूर इस काले कानून का विरोध किया जिसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार को यह कानून वापस लेना पड़ा।
इसी तरह नाजी जर्मनी की खुफिया पुलिस- गेस्टापो, सामान्य पुलिस की तरह सड़कों पर लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन नही करती थी। चोरी, बलात्कार, हत्या की जांच या सुरक्षा नही करती थी। ये खुफिया पुलिस ‘देश’ की रक्षा करती थी। नाजी विचारधारा की रक्षा करती थी। इसका मुख्य काम देशद्रोहियों को खोजना था।

गेस्टापो के कैडर बगैर वारंट या बगैर मजिस्ट्रेट के ऑर्डर के किसी को भी ‘देशहित’ में गिरफ्तार कर सकते थे। उठा सकते थे, पूछताछ कर सकते थे। जब आपको अधिकारी, किसी रेकार्ड के बगैर गिरफ्तार कर सकते हैं, तो छोड़ना या बताना, कुछ भी जरूरी नही। “हमने गिरफ्तार ही नही किया” बस एक लाइन कहकर वे मुक्त हो जाते है। लोकल थाने मे एक गुमशुदगी दर्ज हो जाएगी। नतीजा- गलती से भी पकड़ लिए गए लोगों को जिंदा रिहा करने की कोई बाध्यता नही।
तो जर्मनी में क्या हुआ? ये जानना आज के भारत के लिए और किसी भी बात से ज्यादा जरुरी है। जर्मनी में राष्ट्रवाद के उभार के उस दौर में गेस्टापो ने जिन्हें पकड़ा, जाहिर है पकड़े जाने वाले ज्यादातर ज्यूस होते। उन्हें तो कपड़ों से पहचाना जाता था। आदेश थे कि ज्यूस अपने बाँह पर “स्टार ऑफ डेविड” याने अपना धर्मचिन्ह लगाकर चलें।
गेस्टापो की ताकत सरकार की ही नही, सरकार समर्थकों की ताकत बन गई। उसका सूचना तंत्र आम जनता थी, उसमे नाजी समर्थक थे। आम जर्मन नागरिक भी अगर विरोध के शब्द कह देता, गद्दार और देशद्रोही होने के नाते गेस्टापो हाजिर हो जाती। हर कोई दूसरे के खिलाफ गेस्टापो को खबर देता। सरकार की नीतियों, असफलताओ, क्रूरता, फेलियर की जरा सी आलोचना किसी ने की नही, कि मिनट में की खबर गेस्टापो तक पहुंचती। गेस्टापो का नाम मौत की छाया बन चुकी थी।

हिटलर के प्रति दीवानगी और उसके बहुप्रचारित राष्ट्रवाद के जुनून में लोगों ने अपनों की खबर गेस्टापो को दी। भाई ने भाई को और बेटे ने बाप को नहीं बख्शा। आम जर्मन दूसरे जर्मन के लिए सूचना देता। दुश्मनी निकालनी हो, बदला लेना हो, सम्पति कब्जा करनी हो.. गेस्टापो को खबर कीजिये। कह दीजिये की अमुक सरकार विरोधी है। उठा लिया जाएगा। ऐसा कहा जाता है कि गेस्टापो के हाथों ज्यूस से ज्यादा जर्मन मारे गए।
अब सवाल यह है कि उत्तरप्रदेश की जनता ने ऐसी दहशत कब चाही थी कि आंखों के सामने गाड़ियां पलटती रहें और थालियां बजायी जाती रहें। क्या इस नए कानून से बन रहे विशेष सुरक्षा बल से ये भय नहीं बना रहेगा कि वह आपके भाई, फूफा, चचा, ताऊ, पिता, पति, प्रेमी को उठा ले जाए.. बगैर किसी दस्तावेज के, बगैर कोई आरोप सिद्ध किये। आपके लोकल थाने, नेता, अफसर, मजिस्ट्रेट को पता भी न चलेगा। क्या ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि इस कानून के जरिए सरकार ने अपहरण की ताकत लीगली अख्तियार कर ली है!
रौलट एक्ट का प्रतिकार हुआ था तो ताकतवर ब्रिटिश सरकार को उसे वापस लेना पड़ा जबकि गेस्टापो का स्वागत हुआ तो पूरे जर्मनी ने उसका दुष्परिणाम भोगा। इधर कुछ वर्षों में सरकार को ही राष्ट्र और लीडर को राष्ट्रपुरुष समझ बैठने वाली ज्यादातर हिन्दुस्तानी आवाम लगता है आन्दोलन का रास्ता भूल बैठी है। जिसे देख कर डर बस यही है कि उप्र का सफल प्रयोग, जल्द ही देश पर भी लागू होता है। सवाल ये भी है कि क्या भारतीय संविधान ऐसे क़ानून की इजाज़त देता है? क्या देश की न्यायपालिका ऐसे क़ानून को असंवैधानिक मानेगी? या दबाव में सरकार के पक्ष में फ़ैसला करेगी?
