‘गांधी’ से संवाद करिए…
सत्य, अहिंसा और प्रेम नामक अस्त्र का प्रयोग वही कर सकता है जो निर्भय हो, निस्वार्थ हो। गांधी ने 1917 में चम्पारण से 30 जनवरी 1948, बिड़ला भवन तक अपने कार्यों से, जीवनचर्या से ये दोनों बातें स्थापित कीं। गांधी के आन्दोलन में न कहीं लाठी चली न बन्दूक, न किसी को लम्बा जेल भुगतना पड़ा, न जानलेवा अनशन करना हुआ, न दिखावे का खर्च करना पड़ा। कहना न होगा कि आज स्थितियां साल १९१७ के चम्पारण से कई गुना ज्यादा खराब हैं और हमें ठीक एहसास भी नहीं है। चम्पारण के किसानों का बहुत शोषण होता था, बहुत जुर्म होते थे, पर यह नहीं हुआ कि अपनी पीड़ा के चलते लोगों ने कभी आत्म हत्या कर ली हो। पर, आज क्या कुछ नहीं हो रहा।
आज देश और दुनिया के समक्ष जो चुनौतियां हैं, उनके समाधान के लिए लोगों का ध्यान गांधी की तरफ है। लगातार बढ़ती बेरोजगारी और अमीर-गरीब के बीच निरंतर चौड़ी होती जा रही खाई की वजह से समाज में अशांति और असंतोष गहराता जा रहा है। दुनिया में पर्यावरण संकट का भी एक विकट सवाल खड़ा है, जो आये दिन प्राकृतिक आपदाओं की शक्ल में दिखता रहता है। ये संकट हमें इस दिशा में सोचने पर मजबूर कर रहे हैं कि पर्यावरण की कीमत पर हो रहा विकास हमें कहां ले जाएगा! इन संकटों का समाधान तलाशते हुए गांधी की याद आती है, जिन्होंने कहा था, ‘इस धरती पर लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए भरपूर संसाधन हैं, लेकिन एक आदमी के भी लालच को पूरा करने की क्षमता नहीं है।’ गुलाम भारत में ही इन समस्याओं को देख-समझ लेने वाले बापू ने अर्थनीति को एक नया ढांचा दिया था- आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन प्रकृति के सहयोग, मनुष्य की प्रतिभा, क्षमता और उत्पादक सृजनशीलता से तैयार करने का। गांधीजी तकनीक के खिलाफ नहीं थे, लेकिन वह मनुष्य को बेकार बनाने वाली तकनीक के खिलाफ थे। वे उस तकनीक का स्वागत करते हैं, जिससे मनुष्य की कुशलता बढ़े, श्रम और उत्पादन करने का आनंद बढ़े।
आज राष्ट्रवाद को देखने का नजरिया अत्यंत संकीर्ण और इतना कुरूप हो गया है कि हमसे जो सहमत नहीं है, वह राष्ट्रद्रोही है। यह बहुत ही गलत और राष्ट्र की भावना को क्षत-विक्षत करने वाली दृष्टि है। यहां ध्यान देने की बात है, कि गांधी से बड़ा राष्ट्रवादी अभी तक कोई नहीं हुआ लेकिन उनका राष्ट्रवाद दूसरे मुल्कों को दुश्मन घोषित करने की बजाय व्यक्ति और परिवार से विकसित होते हुए दूसरे राष्ट्रों तक जाता है और वह व्यापक होते-होते भारत के आदि मंत्र ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ तक जाता है। गांधीजी का राष्ट्रवाद किसी भी राष्ट्र के प्रति हिंसा, प्रतिरोध और प्रतिक्रिया में खड़ा नहीं होता। वह आक्रामक नहीं, मानवीय है।
गांधीजी केवल देश तक सीमित नहीं हैं। वो दुनिया के लिए एक विचार हैं, एक आत्मा हैं जिसने विनम्रता और करुणा को हथियार बनाकर भारत को स्वतंत्र कराया था। उनसे असहमति स्वीकार की जा सकती है लेकिन, उनके सिद्धान्तों की तिलांजलि नहीं दी जा सकती है, क्योंकि यह देश की आत्मा में रचा बसा है।
गांधीजी जैसी स्नेहशीलता और दृढ़संकल्प का उदाहरण हमें शायद ही दुनिया के किसी और महापुरुष में मिले। खड़ाऊ और धोती पर अपने पूरे जीवन को खपा देने वाले, जीवन की प्रतिबद्धता से कभी समझौता नहीं करने वाले, सदभावना और अहिंसा के लिए समर्पित रहने वाले, आत्मनिर्भरता का संदेश देने वाले, स्वतंत्रता और समानता के ऐसे दूत थे जो कहते थे कि विचारों का प्रसार कठोरता और निर्ममता से नहीं प्रेम और संवाद से होना चाहिए।
यह गांधीजी की 150वीं जयंती वर्ष है। आवश्यक है कि हम उन्हें खूब पढ़ें और समझें तभी असल मायनों में हम ‘गांधी’ के साथ न्याय कर पायेंगे।