गिरते लोकतंत्र के बैरोमीटर पर ऊंचा होता भ्रष्टाचार का पैमाना

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● अमिताभ शुक्ल

भारतीय अर्थव्यवस्था से संबंधित तीन महत्वपूर्ण आकलन इस वर्ष जारी हुए हैं: प्रथम, वर्तमान में भारत में भ्रष्टाचार में अत्यधिक वृद्धि हुई है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के भ्रष्टाचार इंडेक्स में पिछले वर्षों में वृद्धि, लोकतंत्र में गिरावट आना (वर्ष 2019 के 6.9 के स्कोर से वर्ष 2020 में 6.61 पर आ जाना) और पिछले 1 वर्ष की अवधि में संपत्ति के केंद्रीकरण में वृद्धि होना (ऑक्सफैम के अनुसार विगत 9 माह की अवधि में भारत में सबसे अमीर व्यक्तियों द्वारा 13 लाख करोड़ रुपए से अधिक की संपत्ति अर्जित की गई है।)

भारत के विकास परिदृश्य एवम् प्राथमिकताओं के संदर्भ में इस वर्ष के बजट पर दृष्टिपात किए जाने से भी विकास की प्राथमिकताएं स्पष्ट होती हैं।

अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार बजट आर्थिक नीतियों का निर्धारण करता है एवं उसके अनुसार अर्थव्यवस्था की प्राथमिकताएं और दिशा तय होती हैं, जिनसे आर्थिक-विकास का स्तर प्रभावित एवं निर्धारित होता है।

इस बुनियादी तत्व का अभाव होने पर एक आम व्यक्ति के पारिवारिक बजट और शासकीय बजट में कोई विशेष अंतर नहीं होता। यह अंतर अवश्य होता है कि, सरकार के बजट के द्वारा जो प्राथमिकताएं और निवेश निर्धारित होता है, वह संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था, जनसंख्या और उनके जीवन स्तर को प्रभावित करता है।

इन संदर्भों में इस वर्ष (2021-22) के बजट में कुल आवंटन का 23.25 प्रतिशत हिस्सा अर्थात 8.09 लाख करोड़ रुपए पूर्व की देनदारी के ब्याज भुगतान पर आवंटित किया गया है, जिसमें 15.7 लाख करोड़ रुपए का राजकोषीय घाटा घोषित किया गया है, जो कि कुल जीडीपी का 6.76% है। ऐसे बजट से 140 करोड़ जनसंख्या के विकास एवं जीवन स्तर में वृद्धि की क्या उम्मीद की जा सकती है?

इस के अतिरिक्त, कोरोना त्रासदी से सर्वाधिक प्रभावित गरीब जनता के जीवन यापन के लिए रोजगार की किरण महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना मनरेगा में 38, 000 करोड़ रुपए की कटौती, स्वास्थ्य सेवाओं और वेल बीइंग के लिए बजट में मात्र 2.3% की वृद्ध, बहु प्रचारित आयुष्मान भारत योजना का बजट यथावत 6,400 करोड़ रुपए रहना, देश की वर्तमान की एक सबसे बड़ी समस्या रोजगार के अभाव के संदर्भ में और कोरोना त्रासदी से प्रभावित होकर कोरोना लोगों के रोजगार छूटने और करोड़ों शिक्षित बेरोजगारों के रोजगार से वंचित होने पर भी रोजगार सृजित करने अथवा प्रदान करने के लिए कोई महत्वपूर्ण, उल्लेखनीय और क्रांतिकारी प्रावधान न होना इस वैश्विक त्रासदी के बाद प्रस्तुत किए गए बजट को अत्यंत सामान्य और निराशाजनक प्रतिपादित करते हैं।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में बजट में जो वृद्धि की गई है वह मुख्यत: अधिसंरचनात्मक सुविधाओं के मद में है, अत: आम आदमी को प्राप्त होने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं में वृद्धि प्राप्त होने की कोई सकारात्मक स्थितियां निर्मित नहीं होतीं। देश के विकास को ठोस और दीर्घकालीन दिशा देने वाली शिक्षा पर बजट आवंटन में 6.13% की कमी (विगत वर्ष के 99, 312 करोड़ रुपए से घटा कर 93, 222 करोड़ रुपए) खेद जनक है। बालिकाओं की शिक्षा पर भी व्यय बढ़ाया जाना चाहिए था, लेकिन वह भी कम ही रहा है।

निजीकरण बढ़ाते जाने की योजना के अंतर्गत अधिसंरचनात्मक क्षेत्र के लिए राशि जुटाने के लिए सरकारी संपत्तियों को बेचने की घोषणा भी इस बजट में करते हुए निजीकरण को बढ़ाते जाने की प्राथमिकता तय हुई है।

कृषि मंत्रालय को आगामी वित्त वर्ष के लिए आवंटित राशि 1, 31, 530 करोड़ रुपए इस वर्ष के बजट अनुमान 1,41,761 करोड़ रुपए की तुलना में 10, 000 करोड़ रुपए कम है। कृषि मंत्रालय की सबसे बड़ी योजना ” पीएम किसान ” में बजट आवंटन विगत वर्ष की तुलना में 75,000 करोड़ रुपए से घटाकर 65,000 करोड़ रुपए किया गया है।

इस प्रकार, संक्षेप में शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और रोजगार जो कि अर्थव्यवस्था के सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम हैं एवं देश की अधिसंख्य जनता के जीवन- स्तर को प्रभावित करते हैं के संदर्भ में कोई उल्लेखनीय प्रावधान न करते हुए इस वर्ष के बजट द्वारा तय आर्थिक नीतियां बहुसंख्यक जनसंख्या के लिए निराशाजनक प्रतीत होती हैं।

(डॉ. अमिताभ शुक्ल अर्थशास्त्री हैं और आजकल भोपाल में रहते हैं।)

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