लौट आओ राम!

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● कनक तिवारी 

राम सदियों से इस देश के बहुत काम आ रहे हैं। लेकिन यह देश उनके काम कब आएगा? लोग आपस में मिलते हैं तो ‘राम राम‘ कहते हैं। कोई वीभत्स दृश्य या दुखभरी खबर मिले तो मुंह से ‘राम राम‘ निकल पड़ता है। देश के अधिकाश हिस्से में अब भी संबोधन के लिए ‘जयरामजी‘ कहने की परंपरा हैै। मेघालय की पान का बीड़ा बेचने वाली एक स्नातक छात्रा ने स्मरणीय टिप्पणी की थी कि इस देश के लोग ‘जयराम‘ कहने के बदले ‘जयसीताराम‘ क्यों नहीं कहते।

लोकतंत्र की रक्षा के लिए राम से ज़्यादा बड़ी कुर्बानी धरती के इतिहास में किसी ने नहीं की होगी। मां, बाप खोए। पत्नी, बच्चे खोए। भाई और रिश्तेदार खोए। वर्षों तक राजपाट खोया। जंगलों की खाक छानी। राम का जीवन एकाकी होने का मायने है। ऐसे अकेले राम को भीड़ के नारों की लहरों पर बार बार बिठाया जाता है।

‘जयश्रीराम‘ के उत्तेजक नारे से छिटका हुआ हर साधारण आदमी इस हिन्दू विश्वास में बहता रहता है कि जब वह आखिरी यात्रा पर चलेगा तब उसके पीछे ‘राम नाम सत्य है‘ का नारा अवश्य गूंजेगा। जिस पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री ने राम मन्दिर का ताला खुलवाया था, वही पार्टी राम को धर्मनिरपेक्षता का ब्रांड एम्बेसडर नहीं बना पाती है। 

राम को वैसे भी संघ परिवार के लोग उस कांग्रेस पार्टी से उठा ले गए हैं जिसके सबसे बड़े मसीहा गांधी ने छाती पर गोली खाने के बाद ‘हे राम‘ कहा था। कांग्रेसी सम्मेलन में महात्मा गांधी की आश्रम भजनावली का उच्चारण नहीं होता। प्रभात फेरी, खादी, मद्य निषेध, अहिंसा सब गायब हैं। राम भी क्या करें? 

गांधी ने ही कहा था ‘ईश्वर, अल्लाह राम के ही नाम हैं।‘ उनका राम केवल हिन्दू का नहीं था। लोकतंत्र के लिए राम, कूटनीति के लिए कृष्ण, राजनीतिक दर्शन के लिए कौटिल्य, भ्रष्ट आचरण के खिलाफ तीसरी आंख खोलने वाले शिव ऐतिहासिक रोल माॅडल हैं। 

राजनीतिक कुर्सी हासिल करने के लिए इक्कीसवीं सदी में हर नेता दक्षिण से उत्तर की ओर यात्रा कर रहा है। राम थे जिन्होंने लोकतंत्र की शिक्षा ग्रहण करने उत्तर से दक्षिण की ओर यात्रा की। उन्हें आदिवासियों, दलितों, पिछड़े वर्गों, मुफलिसों, महिलाओं और यहां तक कि पशु पक्षियों तक की सेवा करने के अवसर मिले थे। 

‘जयराम‘ हों या ‘जयश्रीराम‘ किसी को भी इन वर्गों की सेवा से क्या लेना देना? बिना कुब्जा, अहिल्या, शबरी, हनुमान, सुग्रीव, जटायु आदि के राम मन्दिर बन गया! राम क्या केवल अयोध्या नगर निगम के मतदाता रहे हैं? मन्दिर बन भी गया तो क्या राम उसमें ही बैठे रहेंगे? भारतीय लोकतंत्र के सत्ताधीश जब तक राम की आत्मा का आह्वान नहीं करेंगे तब तक राम तो वनवास में ही रहने का ऐलान करते रहेंगे।

राम भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े स्वप्न और यथार्थ एक साथ हैं। राम ऐतिहासिक कहे जाते हैं और पौराणिक भी। राम का असर लोकतंत्र की अंकगणित के लिहाज से हिन्दुस्तान के अवाम पर सबसे ज्यादा है। राम से ज्यादा सांस्कृतिक इतिहास में अन्य किसी ने खोया भी नहीं है। पत्नी, बच्चे, मां-बाप, राजपाट, भाई बहन, परिवार, नगर, समाज या जीवन का समन्वित सुख? अपरिमित दैवीय शक्ति लिए वे बेचारे मनुष्य बने सहानुभूति बटोरते प्रतीत होते हैं। 

वाल्मीकि और तुलसी के राम जुदाजुदा हैं। दक्षिण की रामायणों में रावण उतना बड़ा खलनायक नहीं है। दक्षिण पूर्व एशिया में रामायण की अलग अलग किंवदन्तियां हैं। बयान अलग अलग हैं। 

लेकिन राम केन्द्रीय चरित्र के रूप में ताजा गुलाब की तरह यादों के गुलदान में खुंसे हैं। सांस्कृतिक बहस के दीवानखानों में शान से बैठे हैं। राम का देवत्व हमारे काम क्या खाक आएगा जब वह उनके काम नहीं आया? 

राम के पास केवल सच का हथियार था। वही एक आधारभूत स्थापना के लिए काफी था। देश के सबसे बड़े, पहले और अकेले लोकतंत्रीय शिखर शासक पुरुष राम ने भारत को राजनीतिक भाषा का ककहरा पढ़ाने के विश्वविद्यालय की स्थापना की। साथ ही यह भी है कि शासक नियम और कानून से बंधने के बाद हर शिकायत की जांच के लिए प्रतिबद्व है। यह उसकी संवैधानिक शपथ का तकाजा है। अगली सदी बल्कि सहस्त्राब्दी ये बुनियादी सवाल अपनी छाती पर क्या छितराएगी?

(लेखक प्रख्यात गांधीवादी विचारक व छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।)

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