वे सूरतें किस देश बसतियां हैं?
● कनक तिवारी
भगतसिंह भारतीय समाजवाद के सबसे कम उम्र के चिंतक हैं। विवेकानंद, गांधी, जयप्रकाश, लोहिया, नरेन्द्रदेव, सुभाष बोस, मानवेन्द्र नाथ राय और जवाहरलाल नेहरू वगैरह ने समाजवाद शब्द का उल्लेख उनसे बड़ी उम्र में किया। भारतीय क्रांतिकारियों के सिरमौर के रूप में चंद्रशेखर आजाद से भी ज्यादा लोकप्रिय हो गए भगतसिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक विचारक थे। उन्होंने सर्वाधिक लेखन हिन्दी में किया। मार्क्सवाद से प्रभावित होने के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया था।
1928 के आसपास और खासतौर पर सान्डर्स वध के बाद भगतसिंह का भूकम्प इतिहास ने महसूस किया। उनके समर्थक होने के बाद न केवल जवाहरलाल नेहरू जैसे नवयुवक को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, बल्कि पूर्ण स्वराज्य का नारा कांग्रेस को नेहरू की अध्यक्षता में देना पड़ा। भगतसिंह अकेले ऐसे योद्धा हैं जिनकी शहादत के पहले महात्मा गांधी से ख्याति किसी कदर कम नहीं थी। यह पट्टाभिसीतारमैया ने अपनी पुस्तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास में स्वीकार किया है।
भगतसिंह ने कांग्रेस और क्रांतिकारियों के पारंपरिक नारे ‘वन्दे मातरम्‘ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ को भारतीयों के कंठ में इंजेक्ट किया। यह नारा क्रांति का प्रतीक बन गया।
भगतसिंह ने धार्मिक आस्थाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने के लिए ‘अल्लाह ओ अकबर‘, ‘सत श्री अकाल‘ और ‘वंदे मातरम्’ जैसे नारे उछालने में विश्वास नहीं किया। गांधी के आह्वान पर स्कूल की पढ़ाई छोड़कर आजादी के आंदोलन में खुद को झोंक देने वाले भगत सिंह ने साम्यवादी विचारकों मार्क्स, लेनिन, एंजिल्स और प्रिंस क्रापाटकिन आदि को पढ़ने के अतिरिक्त अप्टाॅन सिंक्लेयर, जैक लंडन, एम्मा गोल्डमैन, बर्नर्ड शॉ, चार्ल्स डिकेन्स, एंगेल्स और बाकुनिन आदि को भी उतनी ही गंभीरता से पढ़ा था। उनकी किताबों की भूख इसी से समझी जा सकती है कि चौबीस वर्ष से कम उम्र में ही उन्होंने तीन सौ से अधिक महत्वपूर्ण किताबें पढ़ रखी थीं और शहादत के दिन भी लेनिन की जीवनी पढ़ते पढ़ते फांसी के फंदे पर झूल गए।
भगतसिंह का निर्माण नेशनल काॅलेज लाहौर के प्रिंसिपल छबील दास, द्वारका दास लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके मित्रों भगवतीचरण वोहरा, चंद्रशेखर आजाद, सोहनसिंह जोश, सुखदेव, विजयकुमार सिन्हा, शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि ने मिलकर किया था। आश्चर्य है भगतसिंह के साहित्य में विवेकानंद का उल्लेख नहीं है।
मार्च, 1927 में भगतसिंह द्वारा स्थापित नौजवान भारत सभा लाहौर में बंगाल के क्रांतिकारी नेता और विवेकानंद के भाई भूपेन्द्रनाथ दत्त को ‘पश्चिम में युवा आंदोलन‘ विषय पर भाषण देने के लिए बुलाया गया था। बंगाल के क्रांतिकारी और कांग्रेस के सभी बड़े नेता तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू और सुभाष बोस आदि विवेकानंद से प्रभावित थे।
भगतसिंह पर शायद सबसे अधिक असर अपने चाचा अजीत सिंह का था। बगावत करने की वजह से उन्हें अंग्रेजों ने लगभग पूरे जीवन का देश निकाला दिया था। अजीत सिंह, पिता किशन सिंह, लाला लाजपत राय, प्रिंसिपल छबीलदास, लाइब्रेरियन राजाराम शास्त्री, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष बोस का समर्थन करने के बावजूद इतिहास ने भगतसिंह के साथ न्याय नहीं किया।
भगतसिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नामक क्रांतिकारी संगठन के नाम में सोशलिस्ट नाम का शब्द इस आशय के साथ जोड़ा कि भारत को स्वतंत्रता मिलने पर उसका आर्थिक उद्देश्य समाजवाद होना चाहिए। पांच दशक बाद संविधान में संशोधन द्वारा समाजवाद शब्द जोड़ा गया।
भगतसिंह और साथियों का जीवन धर्मनिरपेक्षता को परवान चढ़ाते बीता। उनका विश्वास था धर्म का राजनीति से लेना देना नहीं होना चाहिए। नास्तिक भगतसिंह को ईश्वर या धर्म की परंपराओं में विश्वास नहीं था। दलित वर्ग के लिए क्रांतिकारी संगठनों के दरवाजे बराबरी के आधार पर खुले थे।
किस्सा है कि मुसलमानों के अलग अलग रूढ़ विश्वासों के कायम रहते झटका और हलाल किस्म के मांस को एक साथ परोसकर खिलाए जाने की घटनाएं भी क्रांतिकारियों के बीच होती रहती थीं। भगतसिंह का जीवन प्रकाश की तरह उजला और सूरज के ताप की तरह उष्ण था। अध्ययन और अध्यवसाय के बिना क्रांति की कल्पना उनमें नहीं थी। विपरीत राजनीतिक घटनाओं के बावजूद महात्मा गांधी को लेकर बेहद सम्मान भी था। उनके लिए किसान मजदूर और विद्यार्थी क्रांति के आधार थे। भगतसिंह अनोखे नेता इसलिए थे कि वे किसी लीक पर नहीं चले।
उन्होंने भारतीय क्रांति और स्वतंत्रता युद्ध के मूल्य स्थिर और विकसित करने में परंपरावादी राजनीतिशास्त्र का मुखौटा नहीं लगाया। चाहते तो आयरलैण्ड, फ्रांस और रूस की क्रांतियों के जननायकों जैसा रास्ता तलाश सकते थे। उन्होंने वैसा नहीं किया। भगतसिंह ने रूसी विचारकों को अपने अंतिम दौर में प्रेरणा स्त्रोत बनाया। शुरुआती दौर में आयरलैण्ड के विद्रोहियों से प्रेरणा ग्रहण करते रहे।
भगतसिंह ने पूरी तौर पर सशस्त्र क्रांति को खारिज नहीं किया। साफ कहा, ‘सशस्त्र क्रांति उस समय ही अनिवार्य विकल्प है, जब जनता पूरी तौर पर क्रांति के नियामक मूल्यों के लिए सुशिक्षित हो।’ भगतसिंह सशस्त्र क्रांति को केवल जनता और हुक्मरानों का ध्यान खींचने का माध्यम भर समझते थे। उनके वैचारिक फलसफा में आर्थिक क्रांति करने के लिए सर्वहारा की सार्थक और निर्णायक भूमिका का समावेश था।
भगतसिंह के राजनीतिक उद्देश्य मसलन धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और अस्पृष्यता उन्मूलन वगैरह संविधान में शामिल तो कर लिए गए हैं। अमल में उनकी लचर स्थिति है।
भगतसिंह समर्पित नौजवानों की बड़ी टीम बनाए जाने के पक्षधर थे जो राजनीतिक आदर्शों को यथार्थ में तब्दील कर सके।

उनके कई साथी तार्किक दृष्टि से सम्पन्न और उतने ही घनत्व के थे। विचार और कर्म के समन्वय को ध्रुव तारा बनाकर आकाश में टांक देने की भगतसिंह की बौद्धिक कुशलता उन्हें इतिहास में इर्ष्या योग्य बनाती है। उनके बेहद हंसमुख चेहरे को देखकर किसी के लिए भी यह समझना मुश्किल था कि उनमें बगावत के शोले उबल रहे हैं। वे मृत्युंजय थे। शुरुआत में खतरों से खेलने का रूमानी एडवेंचर भले रहा हो, बाद में भगतसिंह की वैचारिक प्रौढ़ता गाढ़े वक्त में हिन्दुस्तान की आजादी को लेकर बहुत काम आ रही थी। भगतसिंह को औसत जीवन भी नहीं मिला। असेंबली बम काण्ड में धुएं और गर्द गुबार की अफरातफरी के चलते उनके और बटुकेश्वर दत्त को आसानी से भाग जाने का मौका भी था।
असेंबली बम काण्ड क्रांतिकारिता का क्लाइमैक्स था। दरअसल असेंबली में बम नहीं बल्कि क्रांति के अग्निमय शोलों से लकदक वे लाल परचे फेंके। वे किसी भी मुर्दा कौम में बगावत के स्फुलिंग भर सकते थे। वह ब्रिटिश सम्राज्यवाद को भारतीय युवकों की एक प्रतीकात्मक चुनौती थी। उसका समकालीन इतिहास पर वांछित असर पड़ा।
भगतसिंह का दुर्भाग्य है कि अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें हिंसक, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट या कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धांत का विरोधी बताकर इस अशेष जननायक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है। क्रांतिकारियों का उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद आज नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है। उसके सामने आजादी के बदले अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है। भगतसिंह का असली संदेश किताबों को पढ़ने की ललक और उससे उत्पन्न अपने से श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने की है, जिन करोड़ों भारतीयों के लिए कोई प्रतिनिधि शक्ति इतिहास में दिखाई नहीं देती।
भगतसिंह इस लिहाज से दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद इतिहास की दुर्घटना नहीं थे। वे संभावनाओं के जननायक थे। उनसे कई मुद्दों पर असहमति भी हो सकती है लेकिन भगतसिंह से बौद्धिक मुठभेड़ किए बिना सभी तरह की विचारधाराओं का श्रेष्ठि वर्ग आज तक उनसे कन्नी काटता रहा है। तकलीफदेह सूचना है कि भगतसिंह ने लगभग तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें जेल में लिखी थीं जो बाहर पहुंचाए जाने के बावजूद लापरवाही, खौफ या अकारण नष्ट हो गईं। जेल की डायरी उनकी आखिरी किताब है। उसके टुकड़े टुकड़े जोड़कर उनके तेज दिमाग के तर्कों के समुच्चय को पढ़ा और प्रशंसित किया जा सकता है।