हसरत मोहानी : इश्क़ की तहजीब से इंक़लाब के एलान तक
हसरत मोहानी, एक ऐसा मकबूल शायर जिसकी ज़िंदगी इश्क़ और इंक़लाब के बीच बसर हुई। मादर-ए-वतन से बेपनाह मोहब्बत करने वाले मोहानी ने ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है’, जैसी मशहूर ग़ज़ल लिखी तो ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ जैसा कालजयी नारा गढ़ा। मोहानी उन लोगों में से नहीं थे जो किसी सांचे में ढल पाते, उन्होंने वक्त का सांचा बदला। जंग-ए-आज़ादी के इस सच्चे मुजाहिद को लाख – लाख सलाम।
● डॉ. प्रमोद शुक्ल
उर्दू अदब के आकाश का चमचमाता सितारा हसरत मोहानी, एक ऐसा शायर जिसकी ज़िंदगी इश्क़ और इंक़लाब के दो पाटों के बीच बसर हुई। मादर-ए-वतन से बेपनाह मोहब्बत करने वाले मोहानी ने ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है’, जैसी मशहूर ग़ज़ल लिखी तो हिन्दुस्तान को गोरों की गुलामी से आज़ाद करवाने की खातिर ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ जैसा कालजयी नारा गढ़ा। जंग-ए-आज़ादी के इस सच्चे मुजाहिद ने मुल्क को आज़ाद कराने के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। कई बार जेल गये लेकिन घुटने नहीं टेके।
मोहानी उन लोगों में से नहीं थे जो किसी सांचे में ढल पाते, उन्होंने वक्त का सांचा बदला-
कुछ लोग थे कि वक्त के सांचों में ढल गये
कुछ लोग थे कि वक्त के सांचे बदल गये।
उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहान गांव में 1 जनवरी, 1875 को पैदा हुये हसरत मोहानी का असली नाम था सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन। पढ़ने-लिखने में बचपन से ही मेधावी थे। कम उम्र में ही शायरी का जुनून सिर पर सवार हो गया। अपने ज़माने के मशहूर शायर तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी की शागिर्दी मिली। कलम धार पाती चली गयी। इधर, गोरी हुक़ूमत का सितम सिर चढ़कर बोल रहा था। हसरत मोहानी के भीतर बैठा शायर इस सितम के ख़िलाफ़ मुकम्मल आवाज़ बन बैठा।

मज़हब के आधार पर मुल्क के तक़सीम की जबरदस्त मुख़ालफ़त करने वाले मोहानी ने पाकिस्तान जाने की पेशकश ठुकरा दी और आखिरी सांस तक यहीं रहे। इसी मिट्टी में दफ़्न हुए। हिन्दुस्तान के इस नायाब नगीने ने मथुरा, मक्का और मास्को को एक धागे में पिरो दिया।
उन्होंने 1903 में अलीगढ़ से बी.ए. करने के बाद ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ नाम का अख़बार निकालना शुरू किया और अंग्रेजों के जोर-ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लिखने लगे। इसके चलते उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। बावजूद आज़ादी की दीवानगी ऐसी कि मिज़ाज पर कोई असर नहीं हुआ। अपनी तरह लिखते रहे। अपना रंग बनाए रखा। 1904-05 में ही कांग्रेस से जुड़ गये। बाल गंगाधर तिलक से उनका दिली लगाव था। वे उन्हें तिलक महाराज कहा करते थे। वे मिज़ाजी तौर पर इंक़लाबी थे। अपने विचारों और सिद्धांतों से समझौता करना उन्हें तनिक पसंद नहीं था। वे साम्य के पक्षधर थे। खुद ही कहा भी है-
‘दरेवशी ओ इंक़लाब है मसलक मेरा
सूफी मोमिन हूं इश्तेराकी मुस्लिम’।
मोहानी का बगावती तेवर उनके अख़बार ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ में साया हुआ करता था। इसी अख़बार में उन्होंने ब्रिटिश नीतियों के ख़िलाफ़ एक लेख छापा, जिसके चलते उन्हें 1908 में गिरफ्तार कर लिया गया। मोहानी को पहली बार जेल हुई। अलीगढ़ जेल भेजा गया। सजा के रूप में उन पर पांच सौ रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था, जिसे देने से उन्होंने साफ इंकार कर दिया। इसके बाद उन्हें अलीगढ़ से नैनी जेल भेज दिया गया।
बेड़ियों में कैद मोहानी ने अलीगढ़ से नैनी जाने के दौरान ट्रेन में ही ‘चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है’ जैसी ग़ज़ल लिखी थी, जो आगे चलकर काफी मशहूर हुई। 1982 में बनी बाॅलीवुड की फिल्म ‘निकाह’ में इस ग़ज़ल को शामिल किया गया, जिसके बाद इसकी रूमानियत आम-ओ-खास तक पहुंच गई।
खैर, नैनी जेल में सख्त सजा के रूप में अंग्रेज जेलर ने मोहानी को एक मन गेहूं रोज पीसने का फ़रमान सुनाया। बावजूद वे नहीं टूटे। यहां भी इंक़लाबी शायरी जारी रखी। नैनी जेल में चक्की चलाते हुए ही उन्होंने लिखा था-
है मश्क़-ए-सुख़न जारी चक्की की मशक़्क़त भी
इक तुर्फ़ा तमाशा है ‘हसरत’ की तबीअत भी
जो चाहो सज़ा दे लो तुम और भी खुल खेलो
पर हम से क़सम ले लो की हो जो शिकायत भी
दुश्वार है रिंदों पर इंकार-ए-करम यकसर
ऐ साक़ी-ए-जाँ-परवर कुछ लुत्फ़-ओ-इनायत भी
दिल बस-कि है दीवाना उस हुस्न-ए-गुलाबी का
रंगीं है उसी रू से शायद ग़म-ए-फ़ुर्क़त भी
ख़ुद इश्क़ की गुस्ताख़ी सब तुझ को सिखा देगी
ऐ हुस्न-ए-हया-परवर शोख़ी भी शरारत भी
एक साल की सजा काटकर वे जेल से छूटे और फिर बगावत की राह पकड़ ली। अलीगढ़ और बाद में कानपुर में स्वदेशी वस्तुओं की दुकान खोली। गोरों ने खूब सितम ढाया लेकिन मोहानी को नहीं बदल पाये। उनकी कलम नहीं रोक पाये। उन्हें गोरों का गुलाम होकर जीना पसंद नहीं था।
उनका एक शेर भी है-
हम कौल के हैं सादिक अगर जान भी जाती है
वल्लाह कभी खिदमत-ए-अंगे्रज न करते’।
इंकलाब जिंदाबाद
ये मोहानी ही थे, जिन्होंने 1920 में पहली बार ‘इंक़लाब-जिंदाबाद’ का नारा दिया था। जंग-ए-आज़ादी के दौरान तो इस नारे ने अपना असर दिखाया ही, आज भी यह नारा हिन्दुस्तान ही नहीं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी आंदोलनों की जान है। यही नहीं मोहानी ने ही सबसे पहले पूर्ण स्वराज का मसला उठाया था, जिसके चलते उन्हें एक बार फिर जेल जाना पड़ा। 27 दिसंबर, 1921 को कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी-नेहरू जैसे नेताओं के सामने ही पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा।
लेनिन का भी उन पर काफी प्रभाव था। वे लेनिन की तरह दुनिया हिला देने में यकीन रखते थे। वे देश के विभाजन के हमेशा खिलाफ रहे और द्विराष्ट्र के सिद्धांत का पुरजोर विरोध किया। 1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मोहानी को भी शामिल किया गया।

यकीनन, मोहानी के लिये मादर-ए-वतन से बढ़कर कुछ भी नहीं था। देश आज़ाद हुआ, तो वे पाकिस्तान नहीं गये। इसी मिट्टी पर आखिरी सांस ली। उर्दू अदब का यह अजीमुश्शान शायर 13 मई 1951 को मौत की आगोश में समा गया। हालांकि मोहानी जैसे कलमनवीस मरते नहीं। ऐसे लोगों का नाम काल के कपाल पर टंक जाता है-
हम ख़ाक में मिलने पे भी नापैद न होंगे,
दुनिया में न होंगे तो किताबों में मिलेंगे
मोहानी अपने ढंग के अनोखे इंसान थे। उनका अंदाज़ निराला था। वे कौमी एकता के पक्षधर थे। गंगा-जमुनी तहजीब के नायकों में से एक मोहानी की रगों में इश्क़-ए-रसूल दौड़ता था। यही वजह थी कि वे प्रेम के देवता कृष्ण के दीवाने थे।
भगवान कृष्ण से थी बेपनाह मोहब्बत
इश्क़ और इंक़लाब की शायरी करने वाले हसरत मोहानी सच्चे मुसलमान तो थे ही, भगवान कृष्ण के भी अनन्य भक्त थे। वे उन्हें हादी (पैगंबर) मानते थे। कई बार हज कर चुके मोहानी हर साल जन्माष्टमी के दिन मथुरा जाया करते थे। वे हमेशा अपने पास बांसुरी रखते थे। अलीगढ़ जेल में जब उनका सामान ज़ब्त किया गया, तो झोले में बांसुरी भी मिली। अंग्रेज अफसर ने पूछा तो मोहानी ने बताया कि कृष्ण से प्रेम है, इसलिये उसकी बांसुरी अपने पास रखता हूं। कृष्ण पर उन्होंने काफी लिखा भी। उनकी एक मशहूर नज्म है-
मथुरा कि नगर है आशिक़ी का
दम भरती है आरज़ू इसी का
हर ज़र्रा-ए-सर-ज़मीन-ए-गोकुल
दारा है जमाल-ए-दिलबरी का
बरसाना-ओ-नंद-गाँव में भी
देख आए हैं जल्वा हम किसी का
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का
वो नूर-ए-सियाह या कि हसरत
सर-चश्मा फ़रोग़-ए-आगही का
बताया जाता है कि मोहानी का बचपन मथुरा में बीता, जहां उन पर कृष्ण रंग चढ़ा। बचपन में वे मथुरा के मंदिरों में कृष्ण की लीलाओं पर आधारित प्रवचन सुना करते थे। फिर तो प्रेम के देवता का रंग दिल पर ऐसा चढ़ा कि ताउम्र बना रहा। कहें तो मोहानी अपने ढंग के अनोखे इंसान थे। उनका अंदाज़ निराला था। वे कौमी एकता के पक्षधर थे। गंगा-जमुनी तहजीब के नायकों में से एक मोहानी की रगों में इश्क़-ए-रसूल दौड़ता था। यही वजह थी कि वे प्रेम के देवता कृष्ण के दीवाने थे। उन्हें नहीं था किसी फतवे का डर, वे अपनी राह के राही रहे। सच कहें तो उन्होंने जीना सिखाया, दिल में इश्क़ और दिमाग में इंक़लाब लेकर।